पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१

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yore दूर रखत कर लेत आवरन हस्त रखि पास । जानत अन्तरभेद जिप पत्रअधिक रसराज ।। उकदा कशाये हाले दिले दोस्तदार है। तकरीर की है सूरत हैरत में यार हैं ।। शनिवार को जो कागज प्रयोग किया जाता था उसका रंग नीला होता था और उस पर छपा रहता था: - आनंद कन्दाय नमः श्याम श्यामाम्य नमः और काज सनि लिखन में, होय न लेखनि मंद : मिले पत्र उत्तर अवसि, यह विनवत हरिचन्द्र । इन पत्रों में भारतेन्दु की संघर्ष शील मानसिकता, उनके निजी जीवन की उहापोहात्मकता और साहित्य निर्माण के प्रति उनकी व्यापक जिज्ञासा के परिचय मिलते हैं । कुछ पत्र तो उनके इतने आत्मीय है कि वे उनकी संक्षिप्त आत्मकथा ही बन गये हैं । ऐसाही एक पत्र उन्होंने अपने अनुज गोकुल चन्द्र को लिखा था। - भारतेन्दु के ही अनुसार इस अंतरंग पत्र को लिखने में उन्हें चार दिन लग गये थे । पेन्सिल से लिखे इस पत्र को उन्होने कलेजा फाड़कर लिखा । पूरा पत्र उपलब्ध नहीं है । समय की धूल से दबते-दबते लिखावट भी मद्धिम हो गयी है । इसकी कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं: ... विदेश से लौटकर हम न आवें तो इस बात का जो हम लिखते हैं ध्यान रखना । ध्यान क्या अपने पर फर्ज समझना । पर हम जीते-जागते फिरेंगे चिन्ता न करना केवल संयोग के बश होकर यह लिखा है । यदि ऐसा हो तो दो चार बातों का अवश्य ध्यान रखना । यह तुम जानते हों कि तुम्हारी भाभी की हमें कुछ चिंता नहीं, क्योंकि तुम्हारे जैसा देवर जिनका वर्तमान है उसको और क्या चाहिए। दो बात की हमको चिन्ता है । एक कर्ज, दूसरी मल्लिका की रक्षा । थोड़ी सी डिगरी जो बच गयी है, उसे चुका देना और जीवन भर दीन हीन मल्लिका की जिसको हमने धर्मपूर्वक अपनाया है रक्षा करना । कृष्ण की ऊंची शिक्षा संस्कृति. अंग्रेजी और बंगला की है । जो हमारे या बाबू जी के ग्रंथ बेछपे रह जायें वे छापें ।" ___भारतेन्दु जी का यह पत्र उनकी वसीयत है, उनकी व्यथा कथा है, मल्लिका के प्रति उनके लगाव और आत्मीयता की स्वीकारोक्ति है, संस्कृत-अंग्रेजी के साथ बंगला के प्रति उनके प्रेम का भी द्योतक है। एक दूसरा पत्र उन्होंने अपने भतीजे कृष्णचन्द्र को लिखा था । पुत्र के अभाव में यह भतीजा ही उनका सबकुछ था । सारी आत्मीयता एवं हार्दिकता उन्होंने इसमें उड़ेल दी है। "चिरंजीव कृष्ण, प्यारे कृष्ण राजा कृष्ण, बाबू कृष्ण, आंखों की पुतली तुम्हारा जी कैसा है। सर्दी मत खाना रसोई रोज खाते रहना । तुमको छोड़कर यदि हमारा अख्तियार होता तो क्षण भर बाहर नहीं आते, क्या करें लाचारी है, झक मारते हैं । कृष्ण तुम्हारा अभी कोमल स्वच्छ चित्त है । तुम हमारे चित्त को ध्यान से जान सकते, किन्तु बुद्धि और वाणी अभी स्फुर्तित नहीं है । इससे तुम और किसी पर उसे प्रकट नहीं कर सकते हो ।' जो पत्र उन्होंने अपने मित्रों और विद्वानों को लिखें हैं, उनमें उनके विद्या व्यसनीस्वभाव की +झलक मिलती है। अपने लेखन के लिए सामग्री जुटाने की प्रयत्नशीलता के साथ साथ उनकी जिज्ञासुवृत्ति भी इन पत्रों में दिखाई देती है। क वे महाप्रभु श्री चैतन्य देव के जीवन परं एक नाटक लिखना चाहते थे शायद लिखा भी हो । पर उन्नीस