पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१३

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समझे। AUX काले गोरे का एक रंग बस सुझे। मुंह न दिखावे जिसके मुंह में दिलबर का नाम न हो।१०० दुशमन को दोस्त को एकी नज़र से देखे । हजार लानत उस दिल पर जिसमें कि इश्के दिलदार न हो।। मैखाना मसजिद मंदिर एकी फूट आखें वे जिसमें बंधा अशक का तार न हो। दो की गिनती भूले न जबां पर लावे । हिज की तलखी नहीं है जिसमें तलख जिन्दगानी वह है। अपने को खोए तब अपने को पावे । जीस्त नहीं है सरासर बस सरगरदानी वह है। जब अपना ही अपने को होए सौदा । सुलझे रहना इसके जाल से निरी परेशानी वह ह । अपनी आँखों से देखे आप तमाशा । जीना क्या है अगर इस जा में नहीं जानी वह है। खुद अपनी करने लगे आप ही पूजा। जिंदा दर-गोर व जिसके मरने का आजार न हो। अपने ही नशे से आप बने मस्ताना । फूटै आँखें वे जिनमें बंधा अशक का तार न हो रग रग से अनल्हक यही सदा बस आवे । बे महबूब मजेदारी गर हुई तबीअत में तो क्या । आने को खोए तब अपने को पावे। झूठी है सब शायरी अगर नहीं दिल कहीं फिदा । तब 'हरीचंद' मैं क्या कहूं यह दिखलाता । नाहक दीदारी है सारी गर न इश्क का तीर लगा । जब चिनगारी से आप आग हो जाता । दुनियादारी भी है इक बोझ सिर्फ उलफत के बिना । पत्ते से पेड़ बंदे से खुदा कहलाता । बेचारा है वही जो जुल्मे दिलबर से लाचार न हो । जब अपने को हर शै में हाजिर पाता । फूट आँखें वे जिनमें बंधा अश्क का तार न हो । जुज़ से कुल कतरे से दरिया बन जावे। मिलें जहन्नुम में वह बातें जिनका कुछ भी उसूल न हो। अपने को खोए तब अपने को पावै । क्यों वह काबिल है बनता जिसमें वह मकबूल न हो । मिले न मुझसे उसका दिल जिस में वह दिलाराम न हो। सिजदा है य सर का मारना जिसमें कुछ भी हुसूल न हो। मुंह न दिखावै जिसके मुंह में दिलबर का नाम न हो । फाजिल है वह बना क्यों दुनियाँ में जो फुकूल न हो। लगै आग उस मैखाने में जहाँ न वह साकी होवें। क्यों माला फेरे है बह गुल जिसके गले का हार न हो । बरगशत : हो व मजलिस जहाँ दौर उसका न चलै । फूटें आँखें वे जिनमें बंधा अशक का तार न हो । जिसमें उसका नशा न हो वह जहरे हलाहल होएमै । क्यों वद दौलतमंद है जिसके पास जरे बेकसी नहीं । बरहम होए वह सुहबत जहाँ न उसका जिक्र रहै। क्या आजादी है उसको जिसकी अक्ल कुछ फंसी नहीं। बीरान: वह बाग़ हो जिसमें मेरा वह गुलफाम न हो। बगैर उसके वस्ल के सब रँड-रोना है यह हंसी नहीं । मुंह न दिखावै जिसके मुंह में दिलबर का नाम न हो । उजड़ा है वह मोहनी छबि जिस दिल में बसी नहीं । "हरीचंद' सब अभी खाक में मिले जिसमें वह यार न हो। पुरजे हो वह किताब जिसमें तेरा यार बयान न हो । फूट आँखें वे जिनमें बंधा अश्क का तार न हो ।११ गारत हो वह दीन जिसमें तुझ पर ईमान न हो। ढहै वह काबा जहाँ वक्त्त सिजदे के तेरा ध्यान न हो । तुम गर सच्चे हो तो जहाँ को कहते हैं सब क्यों झूठा। टूटै वह बुत तुम्हारी झलक जिसमें ए जान न हो। तुम निर्गुन हो तो फिर यह गुन जग में सब है किसका। काफिर हो वह कुफ्र से तेरे यार जो कि बदनाम न हो। जो झूठा होता है उसकी बातें होती है भूठी । मुंह न दिखावे जिसके मुंह में दिलबर का नाम न हो । ज्यों सपने की मिली संपत कुछ काम नहीं करती। सच्चों के तो काम है जितने वह सच्चे होते है सभी । हम तो पीकर शराब तेरी मस्त हुए ऐसे प्यारे । फिर बंकते हैं भला क्यों सब के जहाँ झूठा है अजी । सबको खोकर तुम्हें ऐ यार हमने पाया बारे । मजा मिला वह जिससे हेच दिखलाते हैं मजहब सारे। भला कहीं शीशे से हीरा हुआ किसी ने है देखा । छोड़के सबको बैठे मैखाने में आसन मारे । तुम निर्गुन हो तो फिर यह गुन जग में सब है किसका। हो वह नाचीज हाथ में जिसके इश्क का जाम न हो। तुम ने बनाया कि बने खुद तो यह माया है कैसी । दूर मुंह न दिखावै जिसके मुंह में दिलबर का नाम न हो । एक जो हो तुम तो फिर यह कौन दूसरी आके घुसी। गरचे काम उसका है तो फिर तेरी क्या तारीफ रही। कभी न देखें नजर उठाकर गरचे सामने खड़ा हो शाह। या फकीर हो, नहीं कुछ इसकी भी मुझको परवाह । तुम करते हो क्यों कहते हैं हुई किसमत की लिखी । यार हो रिश्तेदार हो मुझको खाक नहीं कुछ उनकी चाह। हैं जो तुम्हारे शरीक तो फिर ला-शरीक क्यों नाम पड़ा। फकत मिलो तुम मेरे दिलबर औ मेरा करौ निबाह । तुम निर्गुन हो तो फिर यह गुन जग में सब है किस का । हरीचंद' तेरे कहलाकर और किसी से काम नहो । जहाँ अगर झूठा है तो फिर मतवालों को क्या है काम फूलों का गुच्छा १७३