पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१७

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'हरीचंद' जिय सूल होत लखि वही उजेरी रतियाँ ।२९ लोक-लाज घर भूमि हुड़ाई करो पात सों पार । | जो नंद-नंदन ब्रज में कीनी प्रेम-प्रीति की घातें। वेई कुष वही दुम पल्लव वही उजेरी राते। रोकि-बजाह नगारो देके हो पिय-वसहि मई री। नहि छिपाय कछु रह्यो सखिन सो खुल्यो भेद सबईतब हमको काहे को चीन्हो प्यारे मए समान । परत स्व रोवत पिय के हित ऐसी रीति लई री। बकि बकि उठत नाम पीतम को है यह रीति नई री। हरीचंद जग कहत भले ही यह अब बिगरि गई री।२ जो इतियन सो लगि नहि बिहरो प्यारे नद-कुमार । हमरे प्रान-पिया प्यार को अस भैया बलराम को दहि सों बदन दिखाओ करी लाल मनुहार । बहुत पचिक आवत है या मग नित-प्रति बाही गाम को। नहि रहि जाय बात जिय मेरे यह निज चित्त विचार । कोऊन लायो पियको संदेसोहरीचंद' के नाम को ।३६६ 'हरीचंद' न्यौतेहु के मिस युज आओ बिना अपार ।२५ तुप मुख देखिये की चाट मई सत्ति ये अँखियाँ बिगरैल । प्रान न गए अनहुँ मो तन ते लागी आस-कपाट । विगरि परी मानत नहिं देखे बिना साँघरो छैन । नैन फेर चाहत है देख्यो लीने गो-धन ठाट । मई मतवार धरत पग डगमग नहि सूझत कुल-गेल। बेनु बजावत सो । मुख लालन पाही जमुना-घाट । तजिकै लाज साज गुरूजन की हरि की भई रखेल । अटक्यो जीव फस्यौ जग में फिर तूप मिलिमे की बाट। निज चणाव सुनि औरहु हरखत करत न का 'हरीचंद हिय भयो कुलिस लौ गयो न अब लो फाट ।३४ 'हरीचंद' सब संकछाडि के करहि रूप की सैल २६ निलज इन प्रानन सो नहिं कोय । हौस यह रहि जैहै मन माही। | सो संगम-सुख छोड़ि अजहुँ ये जीवस निरलज होय । चलती बार पियारे पिय को बदन बिलोक्यौ नाही । गए न संग प्रान-प्रीतम के रहे कहा सुख जोय । बैदन के बदले पिय प्यारे धाइ गही नहि बाहीं । 'हरीचंद' अब सरम मिटावत बिना पात ही रोय ॥३५ 'हरीचंद' प्यासी ही जैहे अधर-सुधा-रस चाही ।२७ अब मैं कैसे चलुंगी क्यों सुधि मोहि दिलाई। कहाँ गए मेरे बाल-सनेही । पनघट ही पे पिय प्यारे को क्यों दियो नाम सुनाई। अब लौ फटी नहीं यह छाती रही मिलन अब केही । दूर रह्यो धर गति-मति मूली पग न धर्यो अध जाई। फेर कवे वाह सुखधौ मिलि है विस्त सोचि जिव एही। हरीचद' हो तयहि लौ काच की जब ली रहै मुलाई ।३६ 'हरीचंद' जो खबर सुनावे देहुँ प्रान-धन तेही २८ हाय हरि बोरि बई मंझ-धार । की भली लगाई पार। याद पर वे हरि की बतियाँ । कीन्हीं पल की नहि जो बन-कुजन विहरत मधुरी कहीं लाइके छतियाँ । नोह की नाव चढ़ाय चाप सो पहिले करि मनुहार । कह वे कुछ कहाँ थे खग-मग कह थे बन की पतियाँ । अब कहो विन अपराध तजी क्यो सुनिहे कोन पुकार । चौ पै ऐसिहि करन रही। तो क्यों मन-मोहन अपने मुख सो रस-बात कही । हम जानी सुख सों बीतेगी जैसी बीति रही। सो उलटी कीनी विधिना नै कछु नहिं निबही । | इमे बिसारि अनत रहे मोहन और चाल गही। | एक प्रान-प्यारो दिग नाही विष सम लागत ताते । कुर अकूर प्रान हरि ले गयो आयो दुष्ट कहाँ ते । हरीचंद विदरत नहि छतियाँ भई कुलिस की छाते।३१ तौ 'हरीचंद' कहा को कहा से 'हरीचंद' ताप उतराई मांगत ही बलिहार ।३७ नैन ये लगि के फिर न फिरे । विपुरी अलकन मै फाँस फाँसकै रहि गए तहीं घिरे । | पचि हारे गुरुजन सिख दैके नाहिन रहत थिरे । 'हरीचंद प्रीतम सरूप में इवे फिर न तिरे 1३८ को कहा त्यै गयो कछु नहि जात हि जात कही ३० पिय सों प्रीति लगी नहि अटे अब वे उर मैं सालत बाते ऊधो चाहो सो समभाओ अब तो नेह न टूटे। सुंदर रूप सोड़ि गीता को ज्ञान लेह को कूट। हरीचद ऐसो को मूरख सुधा त्यागि विख लुटै ।३९ निठूर सों नाहक कीनी प्रीति । अब पचिताय हाय करि रहि गई उलटि परोसबरीति। हम तन मन धन जा हित खोयो उन मानी न प्रतीति । अब तो लाजहु टि गई है। 'हरीचंद' कहा कोकहा कीनों बलि विधना की नीति।४० पुरानी परी लाल पहिचान। नई प्रीति नए चाहनवारे तुमहूँ नए सुजान । 'हरीचंद पे जाई कहाँ हम लालन करहु बखान ।४१ सखी री ये उरमोहे नैन हरे कोउ कहौ सैदेसो श्याम को । प्रेम फुलवारी १७७