पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१८

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सब बिधि हमहि बिपति तो ऐसे जीवनह पै ख्वारी उरभि परत सुरभ्यो नहिं जानत सोचत समुझत है न । 'हरीचंद' सोयो बिधिना किन जाग हमारी बारी ।४५ कोऊ नाहिं बरजै जो इनको बने मत्त जिमि गैन । 'हरीचंद' इन बैरिन पाछे भयो लैन के दैन ।४२ पियारे तजी कौन से दोस । सखी री ये अँखियाँ रिझावरि । इतनी हमहू तो सुनि पावै फेर कर संतोस । देखत ही मोहन सों रीझी सब कुल-कानि बिसारि । तुमरे हित सब तज्यो आस इक तुमरी ही चित धारी । मिली जाइ जल दूध मिलै ज्यों नेकु न सकी सम्हारि । एक तुम्हारे ही कहवाए जग मैं गिरवरधारी । सुंदर रूप बिलोकत रपटीं काँचे घट जिमि बारि । जो कोउ तुमरो होइ सोई या जग में बहु दुख पावै । अब बिनु मिले होत हैं व्याकुल रोअत निलज पुकारि । यह अपराध होइ तौ भाखौ जासों धीरज आवै । अपुने फल करि हमहिं कनौड़ी और दिवावत गारि । कियो और तो दोस कछ्र नहिं अपनी जान पियारे । लोक-लाज कुल की मरजादा तृन-सम तजी किचारि । तुमरे हवै रहे जगत में एक प्रेम-प्रन धारे । 'हरीचंद' इनको को रोकै बिगरी जगहि बिगारि ४३ जो अपुने ही को दुख देनो यहै आप को बानो । सखी री ये बिसुवासी नैन । तो क्यों नहिं ताको अपने मुख्य प्यारे प्रगट बखानो । निज सुख मिले जाइ पहिले पै अब लागे दुख दैन । जासों चतुर होइ जग में कोउ तुम सों प्रेम न लावै । दगा दई हवै गए पराए बिसरायो सब चैन । 'हरीचंद' हम तौ अब तुमरे करौ जोई मन भावै ।४९ 'हरीचंद' इनके बेवहारन जानि नफा कछु है न ।४४ सुरतिहू अब नहिं आव स्याम की । मरम की पीर न जाने कोय । प्राननाथ आरति-नासन मन-मोहन सब सुख-धाम की । कासों कही कौन पुनि माने बैठ रही घर रोय । वेई नैन यही मन औ तन वही चटपटी काम की। कोऊ जरनि न जाननवारी बे-महरम सब लोय । भये कुलिस लौ सब पिय बिछुरे निसि बीतत चौ-जाम की अपुनो कहत सुनत नहि मेरी केहि समुझाऊँ सोय । सुनियत लाल कहानिन मैं अब जैसे सीता-राम की । लोक-लाज कुल की मरजादा बैठि रही सब सोय । 'हरीचंद' कहा को कहा कीनो बलि 'हरीचंद' ऐसहि निबहेगी होनी होय सो होय ।४५ या गति बिधि बाम की ।५० अब मैं कब लौं देखू बाट । मोह कित तुमरो सबै गयो । भोर भयो हौं ठाढ़ि ही रहि गइ पकरे द्वार-कपाट । सोई हम सोई तुम तौ अब ऐसो काह भयो । मान समै जिनको नेकहु दुख तुम कबहूँ न सम्हारे । हार पहार भए बिछुरे अरु बिख भए सुख के ठाट । तेई नेन रोवत निसि-बासर कैसे सहत पियारे । सूनी सेज बिनु पिया देखत क्यों न गयो हिय फाट । तिनकहु लखि मम मुख मुरझानो करि मनुहार मनाओ। विरह-सिंधु मैं डूबी ग्वालिनि कहुँ दिखात नहिं घाट । 'हरीचंद' गहि बांह उठाओ जिय मति करहु उचाट।५१ सोइ. परी धरनि पै देखत क्यों तुरते नहिं धाओ । होय हरि दै में ते अब एक । हाय कहा ही कहौं प्रान-पिय तुम आछत गति ऐसी । के मारो के तारो मोहन छोड़ि अपनी टेक । 'हरीचंद' पिय कहाँ दुराये कहो प्रीति यह कैसी ।४६ बहुत मई सहि जात नहीं अब करहु बिलंब न नेक । जो पिय ऐसो मन मोहिं दीनों । 'हरीचंद' छांड़ो हो लालन पावन-पतित-विवेक ।५२ तो क्यों एक निरालो जग नहि मो निवास हित कीनों। नावरि मोरी मॉझरी हो जाय परी मंझधार । इन जग के लोगन सों मो सों बानिक बनि नहिं आवै । निसि अघियारी पानी लागत उलटो बहत बयार । करोर के मध्य एक क्यों हम सो निबहन पावै । के तो जगहि छोड़ाओ हम सों राखौ के ढिग मोहिं । सूझत नहिं उपाय बिनु केवट कोई न सुनत पुकार । 'हरीचंद' दुख देहु न इतनो बिनय करत हों तोहिं 186 'हरीचंद' इबत कु-समय मैं धाइ लगाओ पार ।५३ सुलि के दुखहु करन नहिं पावै । कोऊ ना बटाऊ मेरी पीर को । कैसे प्रान रहै जो सब बिघि हम ही भार उठावें । सब अपने स्वारथ को कोऊ देनहार नहिं धीर को । नैनन सदा चवाइन के डर दृग भरि पियहि न देख्यो । कसकत सो बन रास बिलसिबो हरि-सँग जमुना-तीर को। ताको दुख तो सयौ कोऊ विधि जानी करम को लेख्यो। उलहत हियो नैन भरि आवत लखि थल धीर समीर को। रोवनह में हानि भई अब प्रगट हाय नहि होई । कहाँ कहाँ कित जाउँ न भूलत हँसि हँसि हरिबो चीर को। तो केहि बिधि जिय धीरज राखें सो भाखौ सब कोई । हरीचंद कोउ हाल कहत नहिं गोपराज बलबीर को।५४ भारतेन्दु समग्र १७८