पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१९

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900* अबिरल जुगल कमल दृग बरसत सखि प खीजत होइ खिस्यानी । आजु कुंज क्यों सेज बिछाई तापै दई पिछोरी तानी । हौं धोखे ही गई सयन को चिंतित पिय-संजोग सुखदाई। द्वारहिं तें अभिलाख लाख करि भरि आनंद फूली न समाई । ढकी सेज लखि के पिय सोए जानो भई जिय अमित उमाही । नूपुर खोलि चली हरुए गति पीतम-अधर-सुधा-रस चाही । निकट जाइकै लाइ जुगल भुज जबै गाढ आलिंगन कीनो। तब सुधि आई पिय घर नाही उन तो गौन मधुबन को कीनो । मुरछि परी करि हाय साथ ही मानहुँ लता मूल सों तोरी। बेसुधि लखि आई बुज-बनिता बैठि रहीं घेरे चहुँ ओरी। छिरकत नीर गुलाब बदन मैं आँचर पौन करत कोउ नारी । व्याकुल सखि-समाज सब रोअत मनु आजुहिं बिछ्रे गिरिधारी । इतने पै प्रान गए नहि फिरह सुधि आई अध-राती । हो पापिन जीवति ही जागी फटी न अबौं कुलिस की छाती । फिर वह घर-व्यवहार वहै सब करन परै नित ही उठि माई । 'हरीचंद' मेरे ही सिर बिधि दीनी काह जगत अमराई ५५ यह देखन कों दृग दोय । गए न प्रान अबौं अँखियाँ ये जीवति निरलज होय । सोई कुंज हरे हरे देखियत सोई सुक पिक कीर । सोई सोज परी सूनी हवै बिना मिले बलबीर । वही झरोखा वही अटारी वही गली वही साँझ । वहै नाहिं जो बेनु बजावत ऐहै गलियन माझ । ब्रजह वही वही गौवें हैं वही गोप अरु ग्वाल । बिडरे सब अनाथ से डोलत ब्याकुल बिना गुपाल । नंद-भवन सूनो देखत क्यों गयो नहीं हिय फाट । 'हरीचंद' उठि बेगहि धाओ फेरहु ब्रज की बाट ५६ नंद-भवन हों आजु गई हो भूले ही उठि भोर जागत समय जानि मंगल-मुख निरखन नंद-किशोर । नहिं बंदीजन गोप गोपिका नाहिंन गौवे द्वार । नहिं कोउ मथत दही नहिं रोहिनि ठाढ़ी लै उपचार । तब मोहिं सुरत परी घर नाहिंन सुंदर श्याम तमाल । मुरछित धरनि गिरी द्वारहि पैलखि धाई ब्रज-बाल । लाई गेह उठाइ कोउ बिघि जीवन गए अंदेस । 'हरीचंद' मधुकर तुव आए जागी सुनत सँदेस ।५७ हठीले पिय हो प्यारिहु को हठ राखौ । तुव रूसे सो काम चलै नहि मधुर बचन मुख भाखो । आओ मधुबन छाड़ि फेरहू दूर कुबरिहि नाखौ । 'हरीचंद' को मान राखिकै अधर-सुधा-रस चाखौ ।५८ अथ प्रेम-फुलवारी के प्रीति की रीति ही अति न्यारी। लोग बेद सब सों कछु उलटी केवल प्रेमिन प्यारी । को जाने समुझ को याको बिरली जाननहारी । 'हरीचंद' अनुभव ही लखिये जामै गिरवरधारी ।५९ श्रीराधे सोमा कहा कहिये । रसना अधम बहुरि अधिकारी कोऊ नहिं लहिये । कासों कहिये को समुझे एहि समुझि चित्त रहिये । परम गुप्त रस सब सों कहि कहि कैसे चित दहिये । बिना तुव कृपा अपार सिंधु रस केहि प्रकार बहिये । 'हरीचंद' एहि सोच छोड़ि सब मौन रह्यो चहिये ।६० अहो मम प्राननहू तें प्यारे । ब्रज के धन प्रेमिन के सरबस इन अँखियन के तारे । गहबर कंठ होत क्यों सुनतहि गुन-गन परम तिहारे । उमगत नैन हियो भरि आवत उलहत रोमहु न्यारे । प्राननाथ श्री राधा बू के जसुदा-नंद-दुलारे । 'हरीचंद' जुग जुग चिरजीअहु भक्तन के रखवारे ।६१ पियारे थिर करि थापहु प्रेम । परम अमृतमय जब लौ रवि-ससि प्रोमिन पौं करि छेम। दूर करहु जग बचनहारे ज्ञान करम कुल नेम । 'हरीचंद' यह प्रीत-दुन्दुभी तिनहीं गाजी एम ।६२ छोड़ि के ऐसे मीठे नाम । मित्र प्रानपति पीतम प्यारे जीवितेस सुख-धाम । क्यों खोजत जग और नाम सब करिकै मुक्ति सहेत । ईश्वर ब्रह्म नाम हौआ सो श्रवन न जो सुख देत । तजि के तेरे कोमल पंकज पद को दृढ़ बिस्वास । 'हरीचंद' क्यों भटकत डोलत धारि अनेकन आस ।६३ अहो मेरे मोहन प्यारे मीत । प्रेम फुलवारी १७९