पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२१

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भाग लाहौ सब ही प्रेमी-जन | लाज-कृपा सों भरे बड़े हग बड़े घटे तिमि बार । 'हरीचंद इक-रुप निबाहौ अब पन विगरे नहियाँ ७८मुख चूमत ललचाइ कबहुँ पुनि कबहू भरत अंकोर । (नियसो सदा सोहागिन राधा पुतरी सी दुग माहिं। कावर नेन सहज ही भोरी मन-मोहनि मुसकान । | सदा राव राजौ अंदावन सुबस बसो ब्रज देस । घरसो प्रेम-अमृत मिन पे नितहि श्याम घन भेस । देखि यहे अब दुजो देखन परे न जब लौ प्रान । हरीचंद' निबहो स्वासा लगि यहे प्रेम की बान |८० और कामिनिन को सुश-संपति तुव रस आगे कांची। प्रेम सिद्धि तुप द्वार नी लौ रहत रैन-दिन नाची। हरीचंद याही सों सब तजि हरि-मति तुव रंग रांची। तविकै चुपति सहस्ररहत तूप विसि टक एक निहारी। वाको त्रिभुवन-पति सेवक लौ अनु-छिन करत मजूरी। और सघन की सुख-सामाँ तुव आगे परम अधूरी। पिया मुख चूमत अलकन टारि । 'हरीचंद' याही ते सोहत तोडी के सेंदुर-भूरी ।८२० सोई बाल मुंदी पलकन की छवि रहे लाल निहारि। राधे तुष सोहाग की छाया जग में भयो सोहाग ।। अकबहुँ अधर हलके कर परसत रहत भंवर निरवारि । | तेरो ही अनुराग-छटा हरि सृष्टि-करन अनुराग । अजन मिसि सिंदूर निरखि रहे टरत न इक पल टारि। | सत-चित तुप कृति सो विलगाने लीला प्रियजन भाग। जागी भरि आलस भुष सो गहि पियतम को भुज नारि। पुनि 'हरिचंद' अमंद होत लहि तुष पद-पदुम-पराग।८३ खीचि चूमि मुख पास सोवायो हरीचंद' पलिहारि।७६ हमारी प्यारी सखियन की सिरताच । पियारे केहि विधि देहुँ असीस । ताह की महरानी जो संब ब्रज-मंडल-महराज । नित नित सो हम कहत जियो तुम मोहन कोटि वरीस। सील सनेह सरस सोभा-निधि पूनि जन-मन-काज । तकनबोध । मेरे जिय नित उठि यह मनाऊँ । 'हरीचंद' की सरबस जीवनि पालनि भक्त-समाचार | कबहुं न बदन पिया प्यारे को मुरझयो देखन पाऊँ । श्यामा प्यारी सखियन की सरवर । | तुम जोषो तुमरे जन जी जब लो सागर पारी । अति भोरी गोरी रस-बोरी सहजहि परम उदार । कल्यौ कहल करू नितहि कहेंगे जीओ लाल बिहारी । सुबस बसो । युजवासी हरीनंद तनिकहि यस कीनो श्री ब्रजराज-कुमार ।८४ 'हरीचंद' जग जुगल विराजे प्रीति-रीति परकासी ॥७७ रहों मैं सदा जुगल-भुज छहियाँ । जदपि बहुत जुबली ब्रज में पै पिय कह रुचत न और । अब मत छाँडो राधा-मोहन पकरि दीन की बहियाँ । सदा बसायो श्री प्रदाबन नित नव कुलन महियाँ । तुम्हें कोऊ खोजत है हो राधे । ना जाने कौन साँवरो सो दोटा पीरी कटि गाँधे । बड़े बड़े नेन भरि रहे जल सो वचन कहत अपेजथे। बन बन पात पात करि खोजत प्यारी प्यारी रट साघे । कोमल मुख कुम्हलाइ रह्यो वाको खरी प्रीति-पथ साघे । करि हरि-बिरहा की बाधे ॥७९ । नाहिं। । तरकुली कानन सिर सिंदूर मुख पान । श्री स्वामिनी जी की स्तुति श्री राधे तुही सुहागिनि साँची। 'हरीचंद' सखि चतु न दया टरी इन अँखियन सो अग ना | नील निचोला राधा प्यारी सखियन की सिरमोर । जा मुख-पंकन-मधु की लालच बन्यो रडत मनु भौर । | पान खावत चरन पलोटत दोरत विजन चौर । निज मुख जुगल रमत नित नित श्री बुदयन निज ठौर। ऐसी स्वामिनि तिजि को बरबस भरमें इत उत दोर । 'हरीचद सब तचि याही ते सेक्त इनकी पोर ।८६ हमारी सरवस राधा प्यारी। सब ब्रज-स्वामिनि हरि-अभिरामिनि श्री पुषभानु कुलारी। पदावन-देवी सुख-सेवी सहज चीन-हितकारी । 'हरीचद' गुन-निधि सोभा- निषि कौरति की सूकुमारी । प्यारी कौरति-कीरति-अलि | प्रफुलित रूप-रासि-कुसुमावलि गुन-सुगंध-रस रेशि। सिची प्रेम-जीवन हरि वारो जन-भव-तप-ठेलि 'हरीचद' हरिकलप-तरोवर लपटी सुखहि सकेलि।८८ हमारी प्रान-जीवन-धन श्यामा । ब्रज-बन-तरुनि-चक्र-चूड़ामनि पूरनि हरि-मन-कामा। अति अभिरामा सब सुख-वामा हरि-धामा मनि-धमा । 'हरीनद' तवि साधन सबरे रटत एक तुव नामा ८९ राधे, सब विधि जीति विहारी। अखिल लोक-नायक रस-सरबस तिन की दग उजियारी। राधे तुही सुहागिनि पूरी। 'हरीचंद' आनंदकंद आनंद शान करति बलिहारी ।२० जाजु भुव सांचो भयो मंद। जन-हिय-कुमुद विकासन प्रगट्यो ब्रज-नम पुरन चन्द। F प्रेम फुलवारी १८१