पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४०

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अपनाए की लाज करहु प्रभु लखहु न जन के दोस । तो सब बिधि 'हरिचंद' बचै न-तु ड्रबत होइ अनाथ ।३ निज बाने को विरद निबाहो तजहु हीन पर रोस । नर-तन कहो सुद्धता कैसी । दीनानाथ दयाल जगतपति पतित-उधारन नाथ । 'कितनहु घोओ पोंछौ बाहर भीतर सब छिन पैसी । सब बिधि हीन अधम 'हरिचंदहि' देहु आपुनो हाथ ।७ कारन जाको मूत रही मल ही में लिपटि अनैसी । करहु उन बातन की प्रभु याद । ताको जल सों सुद्ध करत तिनकी ऐसी की तैसी । जो अरजुन सों भारत-रन में कही थापि मरजाद । दैहिक करमन सों न बनै कछु ता गति सहज मलै सी। कैसहु होय दुराचारी पै सेवै मोहिं अनन्य । 'हरीचंद' हरि-नाम-भजन बिनु सब वैसी की वैसी ।४ ताही कहं तुम साधु गुनहु या जग मैं सोई धन्य । बिरद सब कहाँ मुलाए नाथ । सीघ्र धरम मति शांति पाइहैं जो राखत मम आस । पावन पतित दीन-जन रच्छन जो गाई श्रुति गाथ । अरजुन मम परतिज्ञा जानहु नहिं मम भक्त-बिनास । जानहु सब कुछ अंतरजामी धाइ गहौ अब हाथ । छाँहि धरम सब लोक बेद के मम सरनहिं इक आउ । 'हरीचंद' मेटहु निज जन की बिधिहु लिखी जो माथ । सब पावन सों तोहिं छुडैहौं कछु न सोच जिय लाउ । तुम सों कहा छिपी करुनानिधि कही विभीषन सरन समय मैं सोऊ सुमिरहु गाथ । जानहु सब अंतर-गति । लछिमन हनूमान आदिक सब याके साखी नाथ । सहज मलिन या देह जीव की हम तुमरे हैं कहै एकहू बार सरन जो आइ । सहजहि नीच-गामिनी जो मति । ताहि जगत सों अभय करत हम सबहि भांति अपनाइ। तन मन सपनहुँ सो लोभी की यह कयौ मम जनहिं बासना उपजै और न हीय । दीन बिपत-गन में रति । जिमि कूटे चुरए धानन मैं उपजै नाही बीय । निरलज जितने होत पराजित यह कह्यौ तुम मो कहँ प्यारे निह-किंचन अरु दीन । तितनो ही लपटति अति । यह कयौ तुम हमहिं जीव के प्रेरक अंतर-लीन । तापें जो तुमहुँ बिसराओ कह लौं कहौं सुनौ इतनी अब सत्यसंघ महराज । तजि निज सहज विरद-तति । 'हरीचंद' की बार मुलाई क्यों बे बातें आज ।८ तौ 'हरिचंद' बचै किमि बोलहु तिनकौं रोग सोग नहिं व्यापै जे हरि-चरन उपासी । अहो दीन-जन की पति ६ सपनहु मलिन न होइ सदा जे कलप-तरोवर-बासी । देखहु निज करनी की ओर । हरि के प्रबल प्रताप सामुहें जगत दीनता नासी । लखहु न करनी जीवन की कछू एहो नंदकिसोर । 'हरीचंद' निरभय बिहरहिं नित कृष्ण-दास अरु दासी।९ 750OOOC भारतेन्दु समग्र २००