पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४६

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बसंत होली 8 सन् १८७४ की 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' में प्रकाशित दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय । बसंत होली हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय । जोर भयो तन काम को आयो प्रगट बसंत । मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय । बाढयो तन मैं अति बिरह भो सब सुख को अंत ।१ रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास । चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साप । खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।१० याद परी सुख दैन की रैन कठिन भइ आज ।२ चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र । परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग । तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।११ तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।३ यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान । कोइल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान । चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।१२ सोवन निसि नहिं देत हैं तलपत होत बिहान ।४ परी सेज सफरी सरिस करवट ले पछतात । है न सरन तभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय । टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।१३ साथी दुख को जगत मैं कोऊ नाहि लखाय ।५ निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात । रहे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु । पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।१४ हम तुम बिन ब्याकुल भई धाइ भुजन भरि लेहु । टौ न छाती सों दुसह दुख नहिं आयो कंत । मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज । गमन कियो केहि देस को बीती हाय बसंत ।१५ रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काच ।७ | वारों तन मन आपुनो दुहुँ कर लेहुँ बलाय । गमन कियो मोहिं छोड़ि के प्रान-पियारे हाय । रति-रंजान 'हरिचंद' पिय जो मोहिं देहु मिलाय ।१६ १५ मई १८७४ की'हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित। एहि को जिय मैं निरधारिये जू । स्फुट समस्या हम दीन और हीन जो हैं तो कहा हित दीन सों जे करै धन्य तेई यह बात हिए मैं बिचारिये जू । अपुनी दिसि आपु निहारिये जू ।१ सुनिए न कही कछु औरन की विधि मैं विध सों जब ब्याह रच्यो अपनी बिख्दालि सम्हारिये जू । नव कुंजन मंगल चाँवर मे । 'हरिचंद जू आपकी होय चुकी बृषभानु-किसोरी भई दुलही

  • इसके सामने छपा है -

पहिलो बरन न बाँचियो यह बिनवत करजोर । जो पढ़िके मानौ बुरो तो न दोस कछु मोर ।। भारतेन्दु समग्र २०६