पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२९८

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नये जमाने की मुकरी 'नवोदिता हरिश्चंद्र चंद्रिका'खं. ११ सं. १ में सन् १८८४ में प्रकाशित । जब समाविलास संगृहीत हुई थी, तब वैसा ही फंदे मैं जो पड़े न छुटै । काल था कि क्यों सखि सज्जन ना सखि पंखा) इस कपट कटारी जिय मैं हालस । चाल की मुकरी लोग पढ़ते पढ़ाते थे किन्तु अब काल क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पूलिस १७ बदल गया तो उसके साथ मुकरियाँ भी बदल गई । भीतर भीतर सब रस चूसै । बानगी दस पाँच देखिये -- हँसि हँस के तन मन धन मसै । बाहिर बातन मैं अति तेज । सब गुरुजन को बुरो वतावै । क्यों ससि सज्जन नहिं अँगरेज ।८ अपनी खिचड़ी अलग पकावै । सतएँ अठएँ मों घर आवै । भीतर तत्व न झूठी तेजी । तरह तरह की बात सुनाव । क्यों सखि सज्जन नहिं अंगरेजी ।१ घर बैठा ही जोड़े तार । तीन बुलाए तेरह आवें। क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार । निज निज बिपता रोइ सुनावें । आँखो फूटे भरा न पेट । एक गरभ मैं सौ सौ प्रत । जनमावै ऐसा मजबूत । क्यों सखि सजन नहिं ग्रेजुएट ।२ करें खटाखट काम सयाना । सुंदर बानी कहि समुझावै । ससि सज्जन नहिं छापाखाना ।१० विधवागन सों नेह बढ़ावै । दयानिधान परम गुन-आगर । नई नई निन तान सुनावै । अपने जाल में जगत फंसावै । सास सज्जन नहि विद्यासागर ।३ नित नित हमै कर बल-सून । सीटी देकर पास बुलावै । क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।११ रूपया लगे तो निकट बिठावै । ले भागे मोहिं खेलहि खेन । इनकी उनकी खिदमत करो। रूपया देते देते मगे। क्यों सखि सन्चन नहिं सखि रेल ।४ तब आत्रै मोहिं करन सुगब । धन लेकर कछ काम न आव । क्यों मसि सज्जन नहीं सिनाव । १२ ऊँची नीची राह दिखाव । लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै । समय पड़े पर सीधै गुगी । उलटी गनि प्रतिकहि नृमै । क्यों सखि सज्जन नहिं सखि गी । देस देस डोले सजि साज । मतलब ही की बोरी बात । क्यों नि मन्त्रन नहीं बहात्र ।१३ राखै सदा काम की घात । मह जब लागै नब नहि है। होले पहिने सुंदर समला । जानि मान धन मव कछ शूट । क्यों मखि सज्जन नहि सिख अमला ।६ पागल करि मोहिं का मृगव । रूप दिखावत सरबस लूटै । क्यों सास सज्जन बहीं सराव ।१४ m STILE भारतेन्दु समग्र २५६