पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३

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AKOSH

  • ग्रंथ रचे, वे इन्हीं शब्दों का प्रयोग करे क्यों कि वे बहुत से परिभाषिक शब्द होने से भ्रम होता है । इसके सिवाय जब सब लोग यही शब्द लिखने लगेंगे तो हिन्दी में इसका प्रचार भी हो सकेगा।"

कैसी अद्भुत आंकाक्षा है भारतेन्दु की हिन्दी शब्द भण्डार के समृद्धि की । ध्यातव्य है कि भारतेन्दु ही पहले पत्रकार थे जिन्होंने बुक रिव्यू की परम्परा हिन्दी में चलायी । समीक्षा के लिए पुस्तक मिलते ही वह उसकी प्राप्ति स्वीकृति बड़े विस्तार के साथ छापते थे । एक उदाहरण १३ अक्टूबर १८७३ के कवि वचन सुधा से: - व्यामोड विद्रावण -श्रीयुक्त रंगाचारी स्वामी प्रणीत दिल्ली से श्री निवासदास जी ने भेजा धन्यवाद पूर्वक स्वीकृत होकर अद्भुत वस्तु संग्रहालय के पुस्तक संग्रह से संग्रीहत हुआ । पदार्थ दर्शन सुरेन्द्रनाथ भाट्टाचार्य एम. ए. एल. एल. बी –स्कूल कलकत्ते की बनायी और श्री सदानन्द मिश्र की भेजी पहुंची । इस विधा में पुस्तकें बनती निस्संदेह बहुत श्रेयस्कर है, तथापि हिन्दी और परिष्कृत होती तो उत्तम होता । बीजगणित पण्डित पालीराम पाठक मेरठ स्कूल का भाषान्तरित धन्यवाद ।" भारतेन्दु जी की पत्रकारिता हिन्दी शब्द भण्डार का विस्तार तथा हिन्दी वाड्.मय की वृद्धि के लिए सदा प्रयत्नशील रही । किन्तु वह सामाजिक संदर्भ में भारत की दुर्दशा को कभी भूल नहीं पाती थी। • फैलन के शब्दकोश पर उनहत्तर हजार के स्वाहा हो जाने पर वे कितने दुखी दिखायी देते हैं और अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखते हैं: - "बड़े पुन्य का फल उनहत्तर हजार स्वाहा । बड़ा पुन्य करें तब अंग्रेज के घर जन्म लें । गौरवर्ण होने में ही सब बातों में गौरव । हिन्दू लोग लाख किताब बनावे, इससे क्या होता है । अंग्रेज होने ही से किताब बनाया नहीं कि उसमें सब गुण हो जाते हैं । आप लोगों ने कभी श्रीयुत सा. फैलन साहब की डिक्शनरी देखी है ? न देखी हो तो जरूर देख लीजिए । उसमें आप लोगों से टिक्कस बसूल कर-करके सरकार ने उनहत्तर हजार छ: सौ रुपये दिये हैं । सब मिलाकर तेरह सौ बानबे कापी इसकी पचास पचास रुपय में सरकार ने खरीदी है, जिसमें छ: सौ कापी तो सिर्फ बंगाल कवर्नमेंट ने ली हैं। ... इसकी अच्छी छपाई, कागज, कटाई, बधाई यदि बीस रुपये फार्म रखिए तो अठठाइस सौ रुपये हुए । बाको बासठ हजार आठ सौ पचास रुपये क्या हुए ? फैलनाय समर्पयन्ति अंगरेजत्वात् । हाय . . . " भारतेन्दु की पत्रकारिता कई मोरचे पर एक साथ लड़ रही थी. पर उसकी प्रकृति निर्माणात्मक भी वह नये समाज के निर्माण में लगी थी, वह साहित्य निर्माण में लगी थी । उसकी क्रियमाण शक्ति में नये भारत का स्वप्न था। आज की पत्रकारिता को कोई ऐसा रूप नहीं जिसका बीज भारतेन्दु में न हो । इस क्षेत्र में व्यंग विधा के तो वे प्रणेता थे । उनका व्यंग भी बहुआयामी था, कहीं भाषा के माध्यम से कहीं कथा के माध्यम से और कभी ऐसी खबर छापकर कि लोग लोटपोट हो जायें। कभी-कभी हरिश्चन्द्र मैगजीन में वे अंग्रेजी में भी छापते थे । ऐसी अंग्रेजी जो अंग्रेजी भाषा की भी खिल्ली उड़ाती थी और अंग्रेजी की भी । एक बहु उदघृत अंशः इक्कतीस