पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३४

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ही. मा.-- समान है 1 सुलो. दूसरा गांक दिन बहुत विलम्ब करना योग्य नहीं । वि.-तो फिर क्या ? सुं.- हा सखी, अब जाता हूं (अंगूठी उतार कर ही.मा.-मैं सुनती हूं कि वह विचार में सभा दोनों सखियों को देता है। यह हमारे सन्तोष का चिन्ह | को तो जीत चुका है और अब कहता है मैं राजकुमारी से सर्वदा अपने पास रखना । शास्त्रार्थ करूंगा। सुलो. (लेती है। यद्यपि यह अंगूठी सहजही वि.- ऐसा कभी हो सकता है कि मैं संन्यासी से बहुमूल्य है परन्तु आप के सन्तोष का चिन्ह होने से | विचार करूं । और भी अमूल्य हो गई और इसे हम सर्वदा बड़े प्यार से क्यों नहीं क्या प्रण करने के समय अपने पास रक्खेंगी। तुम ने यह प्रतिज्ञा थोड़ी ही की थी कि संन्यासी को च.- आप को प्रसादी फूल भी हमैं रल के छोड़कर मैं प्रण करती हूँ. अब तो जैसा राजकुमार वैसा ही संन्यासी । सुलो.- तो अब उठिए । वि.- तो मैं तो उस से विचार नहीं करने की । सुं.- तुम आगे चलो हम लोग भी आते हैं। ही. मा.- अब नहीं करने से क्या होता है .-(उठकर) इधर से आइए । विचार तो करना ही होगा । और फिर इस में दोष क्या (सुलोचना और चपला आगे २, उन के पीछे विद्या का है, जैसा तुम्हारा दिव्य राजा के कुल में जन्म है वैसा ही हाथ पकड़े हुए सुन्दर चलता है और जवनिका गिरती | दिव्य सन्यासी वर मिल जायगा, मैंने तो चन्द्रमा का है) टुकड़ा वर खोज दिया था पर तू कहती है कि रानी से उसका समाचार ही मत कहो, तो अब मैं कौन उपाय (विद्या और मालिन बैठी हैं) करू - अच्छा है जैसी तुम्हारी चोटी हे कुछ उस से भी लम्बी उस की डाढ़ी है, सिर पर बड़ा भारी जटा है वि.-कहो उन के लाने का क्या किया, लम्बी और सब अंग में भभूत लगाए हैं, ऐसे जोगी नित्य चौड़ी बातें ही बनाने आती हैं कि कछू करना मी आता | नित्य नहीं आते-अहाहा कैसा अद्भुत रूप है ! (गाती है) (राग देस) मा.-भला इस में मेरा क्या दोष है मैंने तो पहिले ही कहा था कि यह काम छिपाकर न होगा, जब अरे यह जोगी सब मन माने । मैंने कहा कि मैं रानी से कहूं तो भी तुमने मना किया लम्बी जटा रंगीले नैना जंत्र मंत्र सब जाने ।। और उलटा दोष भी मुझी को देती हौं, उस दिन तुम ने | कामदेव मनु काम छोडि के जोगी हवै बौराने । कहा कि उन से कहो वे कोई उपाय आप सोच लेंगे, या जोगिय की मैं बलिहारी जग जोगिन कियो जाने । उसका उन ने यह उत्तर दिया कि 'मौसी मैं परदेशी हूं अरे यह जोगी ।।१।। इस नगर की सब बातें नहीं जानता और राजा के घर में ऐसा रसिक जोगी वर मिलता है अब और क्या चोरी से घुस कर बच जाना भी साधारण कर्म नहीं है । जब तुम्हीं कोई उपाय नहीं सोच सकती तो मैं क्या वि.- चल तू भी चूल्हे में जा और जोगी भी । सोचूंगा और अब मुझे मनुष्यों का कुछ भरोसा नहीं है ही. मा.- ऐसा कभी न कहना मैं भले चूल्हे इससे मैं अब दैवकर्म करूंगा सो तू घर में एक अग्नि | मैं जाऊं पर संन्यासी बिचारा क्यों चूल्हे में जायगा ? का कुंड बना दे और रात भर मेरा पहरा दिया कर' वे तो | मला यह तो हुआ पर अब मैं यह पूछती हूं कि एक भले | यों कहते हैं पर देखू उनका देवता कब सिद्ध होता | मानस के लड़के को मैंने आस देकर घर में बैठा रक्खा है – भला वह तो चाहे जब हो एक नई बात और | है, उस की क्या दशा होगी और मैं उससे क्या उत्तर सुनने में आई है जिससे जी में तो रुलाई आती है और दूंगी क्योंकि तुम तो महादेव जी की सेवा में जाओगी पर ऊपर हंसी आती है? वह बिचारा क्या करेगा - और क्या होगा । तुम वि.-- क्या कोई और भी बात सुनने में आई संन्यासी को लेकर आनन्द करना और वह बिचार आप संन्यासी होकर हाथ में दंड कमंडल लेकर तुम्हारे। ही. मा.-- हा, मैंने सुना है कि राजसमा में नाम से भीख मांग खायगा । कोई संन्यासी आया है। वि. -चल- लुच्ची ऐसी दशा शत्रु की चाहिए ? भारतेन्दु समग्र २९२