पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४९

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अस्थिकी देखिमोहे । को देता है) A हैन कछू मिन भोग के या जग काजाने ।। कौन जो दूसरी सु:ख बताये। कापा.- प्यारी पकड़ इसको भी । मानिके वेदन ज्ञानहि छाडिकैको (श्रद्धा दिगबर को लपटती है) पथरा निज मुक्ति बनाये ।। दिगं.- रोमांचित होकर) अहाहा! वाहरे ! पारवती समप्यारिन सो विहरे कपालिनी गल लाग वारोसु:ख अरी सुंदरी एकवार तो रतिमै मुख सो मुखलावै । फेर गरेस लपटिजा (स्वगत) आरे एसी समय नागो हवै शिव नाचे अनंद भरो जग रहिवो उचित नहीं तास लगोटी लगायलऊतो ठीक परे मैं सुख सो निज काल विताचे ।। लंगोटी कसकर) अहाहा ! (गाता है) मि.-महाशाय बेलागिओं को तो ऐष्टी मुत्ति न अरे सुण पीणापयोधर बारी । अच्छी लऐ गी ।। थारे इन नेणा री सोभा मृगन लजावन द्वारी ।। दिगं.- अरे खप्परवारे जो तू रीसै न तो हो यह रीकपालिनी जौं तू म्हासू रमण करै मिलि प्यारी । पर्छ जो शरीर और प्रेम दोऊ होत हू मुक्ति तो बेद में तो सरापगिणि और जतिण रो काम कछन यहारी ।। नहीं। अरे कपालिक रा दरसनही मोच्छको सुख है। कापा.-आप ही आप) अरे इनके वित्त में अरे आचारज हूँ थारोसेवकष्ट्र हमकू भैरवीदिच्छा | तनिक भी श्रद्धा नहीं है । अच्छा देखो (प्रकाश) अद्धे | ध्यानसूदै । इधर तो आना। कापा.- अच्छा बैठो। (कपालिनी बनी हुई श्रद्धा आती है। (दोनों बैठते है। कछ.- (कापा : हाथ में बोतल लेकर ध्यान करता है) सशी देख यह रजोगुण की बेटी श्रद्धा है। श्र.-राक्लाजी बोतल मद से भर गया । दृगजुग अलसाने कंज से नील सोहे ।। कापा.- (देखकर और कुछ पीकर शेष भिक्षुक जुवचन गलमाला कुछ अरु उरु भारे चाल पीरी लहहै। मख छवि यह देखी चन्दकी सी भई है ।। यह पवित्र भवभयहरन । अमृत पियो इक साथ ।। करम पास यासों कटत । भाखत भैरवनाथ ।। श्र.-घूमकर) रावलजी मैं आई कहिये क्या आज्ञा है (दोनों कुछ संकोच कापा.-प्यारी पकड़ तो इस भिक्षुक को। दिगं.- अरे । म्हारे अहन्तानुशासन में मद (श्रद्ध भिक्षक को झपट जाती है। पीवारी आक्षा तो कोई नही ।। भिक्षुक.- (लपट कर और रोमांच दिखाकर) मि.- अपने कापालिक की जूधी मदिला कैछे वाहले कपालिनी लपतनेका छुख ।- (हिंदी में) | पियेगे बार अनेकन रंडन को हम ले निव कंठ लगायो । कापा.-क्या सोचते ही श्रद्धे हन दोनों का चूमि मुखे गाल मैं भुव हालि सद निव ज जन्म बितायो ।। पशुत्व अब भी नहीं गया ये हमारे पीने से मदिराको बूठी औरहु भोग अनेक किए कुच वारिनको शपटायो । समझते है इससे तू अपने अधर के रस से इसको जो सुख मोहिं कपाशिनि दीनन सो कबहू हम पायो ।। पवित्र कर के इन दोनों को दे क्योंकि कथा वाले भी अते कपातिक चलिनल बल्ला पवित्तलऐ अहाहा कहते हैं 'स्त्री मुख तु सदा शुचि ।' आले छोम छिद्रान्त इच्छा कलनेके जोगऐ अले यह बला श्र.-महाराव की जो आज्ञा (आप पीकर बोतल अचलज घलमऐ महालाव हमने आजछ' बुद्ध का मत | भिक्षुक को देती है) | छोला ओल कौल पलम लिखा आप हमाले आचालज मि.-महापडादऐ (बोतल लेकर पीता है) असा ओ हम आप के हिल भए छो अब हमको पलमेछुती केछी छुदल दुधियाऐ ।। बहुषार बारबधून के संग पान हम मद को कर्यो । विगं.- अरे भिक्षुक तू अबी कपाशिनी के संग | जो लघर मधु के संग मौलसिरी सुगंधन सो भयौ ।। सू दूषित होयगयो सो दूर हट ।। यह तो सुवासित आप जोगिन बदन संगमजानही मि.- अले दिगवल तु अधीकपालिनी का दुख जेहि जानि दरलभ देवगन ले अमृत बाहु सुख मानही AOAAK पाखंड विडंबन ३०७ दिच्छा दीजिए।