पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३५१

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शा सखी चल हम लोग भी इन पापियों का मनोरथ देवी विष्णु भक्ति से कहें । दोनों जाती हैं। जवनिका पतन।। इति श्री प्रबोध चन्द्रोदय नाटक में पाखंड बिडम्बन नाम यह तीसरा खेल समाप्त हुआ । GAR Quadro वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति प्रहसन परिहास पूर्ण शैली का यह नाटक सं. १९३० के शुरू में लिखा गया।२१ जून १८७२ के"कविवचन सुधा' के अंक में इस नाटक के पूरे होने की सूचना छप चुकी थी। इसका पहला संस्करण मेडिकल हाल प्रेस से सन् १८७३ में निकला। बाद में १८८४ में इसे भारत जीवन प्रेस ने भी छापा। सं० DEDICATION प्यारे, मैं तुम्हें क्या तमाशा दिखाऊंगा हां धन्यवाद करूंगा क्योंकि निस्संदेह तुमने ऐसा तमाशा दिखाया कि सब कुछ भूल गया, अहा ! स्त्री पुरुष, पंडित मूर्ख, अपना बिगाना और छोटे बड़े सबका तमाशा देखा पर वाह! क्या ही तमाशा है तमाशा तो है पर देखनेवाले थोड़े हैं, न हो तुम देखो मैं देखू उन्हीं तमाशाओं में से यह भी एक तमाशा है देखो । श्रावण शुद्ध ११ सोम-सं० १९३० तुम्हारा हरिश्चन्द्र वैदिकी हिसा हिसा न भवति प्रहसन नांदी दोहा बहु बकरा बलि हित कटै, जाके बिना प्रमान । सो हरि की माया करै, सब जग को कल्यान ।। (सूत्रधार और नटी आती हैं) सूत्रधार-अहा हा ! आज की संध्या की कैसी शोभा है । सब दिशा ऐसी लाल हो रही है. मानों किसी ने बलिदान किया है और पशु के रक्त से पृथ्वी लाल हो गई है। नटी-कहिए आज भी कोई लीला कीजिएगा ? सूत्र.- बलिहारी! अच्छी याद दिखाई, हा जो लोग मांसलीला करते हैं उनकी लीला करेंगे। (नेपथ्य में) अरे शैलूषाधम ! तू मेरी लीला क्या करेगा । चल भाग जा, नहीं तो मुझे भी खा जायगे । (दोनों सभय) अरे हमारी बात गृध्रराज ने सुन ली, अब भागना चाहिए नहीं तो बड़ा अनर्थ करेगा । (दोनों जाते हैं इति प्रस्तावना वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ३०९