पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७८

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सूत्र.- प्यारी, मैने भी नहीं लखा, देखो, अब फिर से वही पढ़ता हूँ और अब जब वह फिर बोलेगा तो 'मैं उसकी बोली से पहिचान लूंगा कि कौन है । ('अहो चंद्र पूर न भए' फिर से पढ़ता है) (नेपथ्य मे) हैं ! मेरे जीते चंद्र को कौन बल से ग्रस सकता है ? सूत्र.- (सुनकर) जाना । अरे अहै कौटिल्य नटी-(डर नाट्य करती है) दृष्ट टेढी मतिवारो। बापूदेव शास्त्री को मैंने पत्र लिखा । क्योंकि टीकाकारों ने 'चंद्रमा पूर्ण होने पर' यही अर्थ किया है और इस अर्थ से मेरा जी नहीं भरा । कारण यह कि पूर्ण चंद्र में तो ग्रहण लगता ही है । इसमें विशेष क्या हुआ ? शास्त्री जी ने जो उत्तर दिया है वह यहाँ प्रकाशित होता है। श्रीयुत बाबू साहिब को आपूदेव का कोटिश : आशीर्वाद, आपने प्रश्न लिख भेजे उनका संक्षेप से उत्तर लिखता हूँ। १ सूर्य के अस्त हो जाने पर जो रात्रि में अधकार होता है यही पृथ्वी की छाया है और पृथ्वी गोलाकार है और सूर्य से छोटी है इसलिये उसकी छाया सूच्यकार शंकु के आकार की होती है और यह आकाश में चंद्र के भ्रमरण मार्ग को लांघ के बहुत दूर तक सदा सूर्य से छह राशि के अंतर पर रहती है और पूर्णिमा के अंत में चंद्रमा भी सूर्य से छह राशि के अंतर पर रहता है । इसलिये जिस पूर्णिमा मो चंद्रमा पृथ्वी की छाया में आ जाता है अर्थात पृथ्वी की छाया चंद्रमा के बिंब पर पड़ती है तभी वह चंद्र का ग्रहण कहलाता है और छाया जो चंद्रबिंब पर देख पड़ती है वही ग्रास कहलाता है और राहु नामक एक दैत्य प्रसिद्ध है वह चंद्रग्रहणकाल में पृथ्वी की छाया में प्रवेश करके चंद्र की ओर प्रजा को पीड़ा करता है. इसी कारण से लोक में राहुकृत ग्रहण कहलाता है और उस काल में स्नान, दान, जप, होम इत्यादि करने से वह राहुकृत पीड़ा दूर होती है और बहुत पुण्य होता है। २ पूर्णिमा में चंद्रबिब भी संपूर्ण उज्जल होता है तभी चंद्रग्रहण होता है । ३ जब कि पूर्णिमा के दिन चंद्रग्रहण होता है. इससे पूर्णिमा में चंद्रमा का और बुध का योग कभी नहीं होता (क्योंकि बुद्ध सर्वदा सूर्य के पास रहता है और पूर्णिमा के दिन सूर्य चंद्रमा से छह राशि के अंतर पर रहता है. इसलिये बुद्ध भी उस दिन चंद्र से दूर ही रहता है) । यो बुध के योग में चंद्रग्रहण कभी नहीं हो सकता । इति शिवम संवत् १९३७ जेष्ठ शुक्ल. १५ मंगल दिने, मंगल मंगले भूयात् । शास्त्री जी से एक दिन मुझे इस विषय में फिर वार्ता हुई । शास्त्रीजी को मैंने मुद्राराक्षस की पुस्तक भी दिखलाई । इसपर शास्त्री जी ने कहा कि मुझको ऐसा मालूम होता है कि यदि उस दिन उपराग का सभव होगा नो सूर्यग्रहण का क्योंकि बुधयोग अमावस्या के पास होता भी है । पुराणों में स्पष्ट लिखा है कि राहु चंद्रमा का ग्राम्म करता है और केतु सूर्य का और इस श्लोक में केतु का नाम भी है । इससे भी संभव होता है कि सूर्य उपराग रहा हो । तो चाणक्य का कहना भी ठीक हुआ कि केतु हठपूर्वक क्यों चद्र को ग्रसा चाहता है अर्थात एक तो चन्द्रग्रहण का दिन नहीं. दूसरे केतु का चंद्रमा ग्रास का विषय नहीं क्योकि नंदवीर्य्यजात होने से चंद्रगुपन राक्षस का वध्य नहीं है । इस अवस्था में 'चंद्रम् असंपूर्णमंडल' चंद्रमा का अधूरा मंडल यह अर्थ करना पड़ेगा । तब छंद में 'चंद बिाब पूरन भए' के सथान पर 'बिना चंद्र पूरन भए' पढ़ना चाहिए । बुध का बिंब प्राचीन भास्कराचार्य के मतानुसार छह कला पद्रह विकला के लगभग है । परतु नवीनों के मत से केवल दश विकला परम है। परंतु इसमें कुछ संदेह नहीं कि यह ग्रह बहुत छोटा है क्योंकि प्राचीनों को इसका ज्ञान बहुत कठिनता से हुआ है, इसीलिये इसका नाम ही बुध, ज्ञ, इत्यादि हो गया । यह पृथ्वी से ६८९३७७ इतने योजन की दूरी पर मध्यम मान से रहता है और सदा सूर्य के अनुचर के समान सूर्य के पास ही रहता है, एक पाद अर्थात तीन राशि भी सूर्य से आगे नहीं आता । विल्सन ने केतु शब्द से मलयकेतु का ग्रहण किया है । इसमें भी एक प्रकार 'का अलंकार अच्छा रहता है। चमत्कृतबुद्धिसंपन्न पंडित सुधाकर जी ने इस विषय में जो लिखा है वह विचित्र ही है । वह भी प्रकाश किया जाता है NA भारतेन्दु समग्न ३३४