पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८१

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अपने बल सों लावहीं जद्यपि मारि सिकार ! तदपि सुखी नहिं होत हैं, राजा-सिंह-कुमार ।। (यम' का चित्र हाथ में लिए योगी का वेष धारण किए बचन से कहता है। शिष्य.- चल मूर्ख! क्या बेठिकाने की बकवाद कर रहा है। द्वत-अरे ब्राह्मण ! यह सब ठिकाने की बातें दूत आता है) दुत- होंगी। होय । (घूमता है) नहीं? अरे, और देव को काम नहि, जम को करो प्रनाम । शिष्य-- कैसे होगी? जो दूजन के भक्त को, प्रान हरित' परिनाम ।। दूत-- जो कोई सुननेवाला और समझनेवाला और उलटे ते इ बनत है, काज किएअति हेत । चाणक्य.- रावल जी! बेखटके चले आइए, जो जम जी सबको हरत, सोई जीविका देत ।। यहाँ आपको सुनने और समझनेवाले मिलेंगे। तो इस घर में चलकर जमघट दिखाकर गावें । द्वत-आया (आगे बढ़कर) जय हो महाराज की। शिष्य- रावल जी! इयोढ़ी के भीतर न चाणक्य.- (देखकर आप ही आप) कामों की आना । भीड़ से यह नहीं निश्चय होता कि निपुणक को किस दूत- अरे ब्राह्मण ! यह किसका घर है ? बात के जानने के लिये भेजा था । अरे जाना, इसे लोगों शिष्य.- हम लोगों के परम प्रसिद्ध गुरु | के जी का भेद लेने को भेजा था । (प्रकाश) आओ आओ चाणक्य जी का। कहो. अच्छे हो ? बैठो। दूत- (हँसकर) अरे ब्राह्मण, तब तो यह मेरे जो आज्ञा । (भूमि में बैठता है) गुरुभाई का घर है ; मुझे भीतर जाने दे. मैं उसको चाणक्य. कहो. जिस काम को गए थे धर्मोपदेश करूँगा। उसका क्या किया ? चंद्रगुप्त को लोग चाहते हैं कि शिष्य.- (क्रोध से) छि : मूर्ख ! क्या तू गुरु जी से भी धर्म विशेष जानता है? द्वत-महाराज! आपने पहले ही से ऐसा प्रबंध दूत- अरे ब्राह्मण ! क्रोध मत कर, सभी सब किया है कि कोई चंद्रगुप्त बिराग न करे ; इस हेतु नहीं जानते, कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से सारी प्रजा महाराज चंद्रगुप्त में अनुरक्त है, पर राक्षस लोग जानते हैं। मंत्री के दृढ मित्र तीन ऐसे हैं जो चंद्रगुप्त की वृद्धि नहीं शिष्य.- (क्रोध से) मूर्ख ! क्या तेरे कहने से सह सकते । गुरु जी की सर्वज्ञता उड़ जायगी ? चाणक्य. (क्रोध से) अरे! कह, कौन भला ब्राह्मण ! जो तेरा गुरु सब जानता अपना जीवन नहीं सह सकते. उनके नाम तू जानता है तो बतलावे कि चंद्र किसको नहीं अच्छा लगता ? शिष्य-मूर्ख ! इसको जानने से गुरु को क्या दूत-जो नाम न जानता तो आप के सामने क्योंकर निवेदन करता? दूत- यही तो कहता हूँ कि यह तेरा गुरु ही चाणक्य.- मैं सुना चाहता हूँ कि उनके क्या समझेगा कि इसके जानने से क्या होता है ? तू तो सुधा नाम हैं। मनुष्य है, तू केवल इतना ही जानता है कि कमल को दूत-- महाराज सुनिए । पहिले तो शत्रु का चंद्र प्यारा नहीं है। देख - पक्षपात करनेवाला क्षपणक है। जपि होत सुंदर, कमल, उलटो तदपि सुभाव । चाणक्य.- (हर्ष से आप ही आप) हमारे जो नित पूरन चंद सों, करत बिरोध बनाव ।। शत्रुओं का पक्षपाती क्षपणक है ? (प्रकाश) उसका नाम चाणक्य. - (सुनकर आप ही आप) अहा ! "मैं चंद्रगुप्त के बैरियों को जानता हूँ" यह कोई गूढ़ द्वत-जीसिद्धि नाम है। कुछ काम? १. उस काल में एक चाल के फकीर जम का चित्र दिखलाकर संसार की अनित्यता के गीत गाकर भीख मांगते थे। CAL मुद्रा राक्षस ३३७