पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८५

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और भी सादा दंति के कुंभ को" इत्यादि फिर से पढ़ता है 1 चंदन.- (आप ही आप) अब तुमको सब कहना फबता है।। (नेपथ्य में) हटो हटो- चाणक्य- शारंगरव ! यह क्या कोलाहल है देखो तो? शिव्य-जो आज्ञा (बाहर जाकर फिर आकर) महाराज, राजा चंद्रगुप्त की आज्ञा से राजद्वेषी जीवसिद्धि क्षपणक निरादरपूर्वक नगर से निकाला जाता है । चाणक्य-क्षपणक! हा! हा! अथवा राजविरोध का फल भोगै । सुनो चंदनदास ! देखो, राजा अपने द्वेषियों को कैसा कड़ा दंड देता है । मैं तुम्हारे भले की कहता हूँ, सुनो, और राक्षस का कुटुंब देकर जन्म भर राजा की कृपा से सुख भोगो । चंदन.-महाराज ! मेरे घर राक्षस मंत्री का देख राजकोप का कैसा फल पाता है। चंदन.- (बाँह फैलाकर) मैं प्रस्तुत हूँ, आप जो चाहिए अभी दंड दीजिए। चाणक्य- (क्रोध से) शारंगरव! काल- पाशिक, दंडपाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिये को दंड दें । नहीं, ठहरो, दुर्गपाल विजय- पाल से कहो कि इसके घर का सारा धन ले लें और इसको कुटुंब समेत पकड़कर बाँध रखें, तब तक मैं चंद्रगुप्त से कहूँ, वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण के हरण की आज्ञा देगा । शिष्य-जो आज्ञा महाराज : सेठजी इधर आइए । चंदन.-लीजिए महाराज! यह मैं चला । (उठकर चलता है, आप ही आप) अहा ! मैं धन्य हूँ कि मित्र हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु को सभी मरते हैं! चाणक्य-हर्ष से) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि जिमि इन तृन सम प्रान तजि कियो मित्र को त्रान । तिमि सोह निज मित्र अरु कुल रखिहै दै प्रान ।। (नेपथ्य में कलकल) चाणक्य-शारंगरव! शिष्य- (आकर) आज्ञा गुरुजी ! चाणक्य-देख तो यह कैसी भीड़ है। शिष्य- (बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर) महाराज ! शकटदास को सूली पर से उतार कर सिद्धार्थक लेकर भाग गया । चाणक्य-(आप ही आप) वाह सिदार्थक । काम का आरभ तो किया । (प्रकाश) हैं क्या ले गया ? (क्रोध से) बेटा ! दौड़कर भागुरायण से कहो कि उसको कुटुंब नहीं है। (नेपथ्य में कलकल होता है) चाणक्य-शारंगरव! देख तो यह क्या कलकल होता है? शिष्य-जो आज्ञा । (बाहर जाकर फिर आता है) महाराज! राजा की आज्ञा से राजद्वेषी शकटदास कायस्थ को सूली देने ले जाते हैं । चाणक्य-राजविरोध का फल भोगे । देखो. सेठ जी ! राजा अपने विरोधियों को कैसा कड़ा दंड देता है, इससे राक्षस का कुटुंब छिपाना वह कभी न सहेगा; इसी से उसका कुटुंब देकर तुमको अपना प्राण और कुटुंब बचाना हो तो बचाओ 1 चंदन.-महाराज! क्या आप मुझे डर दिखाते हैं ! मेरे यहाँ अमात्य राक्षस का कुटुंब हई नहीं है, पर जो होता तो भी मैं न देता । चाणक्य- क्या चंदनदास ! तुमने यही निश्चय किया है ? चंदन.- हाँ ! मैंने यही दृढ़ निश्चय किया है । चाणक्य- (आप ही आप) वाह चंदनदास ! पकड़े । वाह ! क्यों न हो! | दूजे के हित प्रान दै, करें धर्म प्रतिपाल । को ऐसो शिवि के बिना, दूजो है या काल ।। (प्रकाश) क्या चंदनदास, तुमने यही निश्चय किया शिष्य- (बाहर जाकर आता है, विषाद से) गुरु जी ! भागुरायण तो पहिले ही से कहीं भाग गया है । चाणक्य- (आप ही आप) निज काज साधने के लिये जाय । (क्रोध से प्रकाश) भद्रभट, पुरुषदत, हिंगुराज, बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा से कहो कि दुष्ट भागुरायण को पकड़ें । शिष्य-जो आज्ञा । (बाहर जाकर फिर आकर विषाद से) महाराज ! बड़े दुख की बात है कि सब बेड़े का बेड़ा हलचल हो रहा है । भद्रभट इत्यादि तो सब पिछली ही रात भाग गए। चाणक्य- (आप ही आप) सब काम सिद्ध करें । (प्रकाश) बेटा. सोच मत करो। ? चंदन.- हाँ ! हाँ ! मैंने यही निश्चय किया 1 चाणक्य-- (क्रोध से) दुरात्मा दुष्ट बनिया ! - मुद्रा राक्षस ३४१