पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३८६

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जे बात कछ जिय धारि भागे. भले सुख सों भागहीं । आप जाय, महाराज! मैं तो अपनी जीविका के प्रभाव से जे रहे तेह जाहि. तिनको सोच मोहि जिय कछू नहीं | सभी के घर जाता आता हूँ। अरे क्या वह गया ? 'सत सैन सो अधिक साधिनि काज की जेहि जग कहै । (चारों ओर देखकर) अहा, बड़े आश्चर्य की बात है जब सो नंदकुल की खननहारी बुद्धि नित मो मैं रहै ।। मैं चाणक्य की रक्षा में चंद्रगुप्त को देखता हूँ तब (उठकर और आकाश की ओर देखकर) अभी भद्र समझता हूँ कि चंद्रगुप्त ही राज्य करेगा. पर जब राक्षस भटादिकों को पकड़ता हूँ। (आप ही आप) राक्षस! | की रक्षा में मलयकेतु को देखता हूँ तब चंद्रगुप्त का राज अब मुझसे भाग के कहाँ जायगा, देख - गया सा दिखाई देता है, क्योंकि- एकाकी मदगलित गज, जिमि नर लावहिं बधि । चाणक्य ने ले जाप बाँधी बुद्धिरूपी डोर सो । चंद्रगुप्त के काज में तिमि तोहि धरिहों साधि ।। करि अचल लक्ष्मी मौर्यकुल में नीति के निज जोर सों । (सब जाते है-जवनिका गिरती है) पै तदपि राक्षस चातुरी करि हाथ में ताको करै । महि ताहि खींचत आपुनी दिसि मोहि यह जानी परै । सो इन दोनों पर नीतिचतुर मंत्रियों के विरोध में नंदकुल की लक्ष्मी संशय में पड़ी है। दोऊ सचिव विरोध सों, जिमि बन जुग गजराज । द्वितीय अंक हथिन सी लक्ष्मी बिचल, इत उत झोंका खाय ।। स्थान -राजपथ तो चलूँ, अब मंत्री राक्षस से मिलूँ । (मदारी आता है) (जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और मदारी-अललललललल, नाग लाए साँप पास प्रियंबदक नामक सेवक दिखाई देते हैं) लाए! राक्षस-(ऊपर देखकर आंखों में आंसू भर तंत्र युक्ति सब जानहीं, मंडल रहि बिचार । कर) हा ! बड़े कष्ट की बात है - मंत्र रक्षही ते करहिं, अहि नृप को उपकार ।। गुन-नीति बल सों जीति अरि जिमि आपु जादवगन हयो आकाश में देखकर महाराज ! क्या कहा ? 'तू तिमि नंद को यह विपुल कुल बिधि बाम सों सब नसि कौन है ?' महाराज! मैं जीर्णविष नाम सपेरा हूँ। फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा कि 'मैं भी साँप | एहि सोच में मोहि दिवस अस निसि नित्य जागत का मंत्र जानता हूँ खेलूंगा ? तो आप काम क्या करते हैं. यह कहिए ? (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या यह लखै चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं ।। कहा -'मैं राजसेवक हूँ ?' तो आप तो साँप के साथ अथवा खेलते ही हैं । (फिर ऊपर देखकर) क्या कहा | बिनु भक्ति भूले. बिनहि 'कैसे' ? मंत्र और जड़ी बिन मदारी और आँकुस बिन स्वारथ हेतु हम यह पन लियो मतवाले हाथी का हाथीवान, वैसे ही नए अधिकार के बिनु प्रान के भय, बिनु संग्रामविजयी राजा के सेवक -ये तोनों अवश्य नष्त्र प्रतिष्ठालाभ सब अब लौं कियो ।। हाते हैं । (ऊपर देखकर) यह देखते देखते कहाँ चला सब छोड़ि के परदासता एहि हेत नित प्रति हम करें। गया ? (फिर ऊपर देखकर) यह महाराज ? पूछते हो | जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निव शत्रु हत लखि सुख भरै।। कि 'इन पिटारियों में क्या है ?' इन पिटारियों में मेरी (आकाश का ओर देखकर दु:ख से) हा ! भगवती जीविका के सर्प हैं (फिर ऊपर देखकर) क्या कहा कि | लक्ष्मी ! तू बड़ी अगुणज्ञा है क्योंकि - मैं देखूगा ! वाह वाह महाराज । देखिए देखिए, मेरी निज तुच्छ सुख के हेतु तजि गुनरासि नंद नृपाल को । बोहनी हई. कहिए इसी स्थान पर खोलूँ ? परंतु यह अब शूद्र में अनुरक्त हवै लपटी सुधा मनु ब्याल को। स्थान अच्छा नहीं है ; यदि आपको देखने की इच्छा हो | ज्यों मत्त गज के मरत मद की धार ता साहिं नसै। तो आप इस स्थान में आइए मैं दिखाऊँ। (फिर | त्यों नंद साहि नसी किन ? निलज, अजहूँ जग बसे।। आकाश की ओर देखकर) क्या कहा कि 'यह स्वामी अरे पापिन ! राक्षस मंत्री का घर है, इसमें मैं घुसने न पाऊँगा, तो | का जग में कुलवंत नृप जीवत रहयौ न कोय । गयो ।। बीतहीं । 1 १. 'आकाश में देखकर' या 'ऊपर देखकर' का आशय यह है कि मानो दूसरे से बात करता है 44 भारतेन्दु समग्र ३४२