पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९७

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चंद्र..- चाणक्य-सुनो और भूल मत जाओ । देते । जो मेल करते तो आधा राज देना पड़ता और जो चंद्र.- आर्य ! मैं सुनता हई हूँ, भूलूगा भी दंड देते तो फिर यह हम लोगों की कृतघ्नता सब पर नहीं; कहिए। प्रसिद्ध हो जाती कि इन्हीं लोगों ने पर्वतक को भी मरवा चाणक्य-जब जो लोग उदास हो गए है या डाला और जो आधा राज देकर अब मेल कर लें तो उस बिगड़ गए हैं उनके दो ही उपाय है, या तो फिर से उन बिचारे पर्वतक के मारने का पाप ही पाप लगे । इससे पर अनुग्रह करें या उनको दंड दें और भद्रभट, मलयकेतु के भागते समय छोड़ दिया । पुरुषदत्त से जो अधिकार ले लिया गया है तो अब उन चंद्र. और भला राक्षस इसी नगर में रहता था, पर अनुग्रह यही है कि फिर उनको उनका अधिकार उसका भी आपने कुछ न किया इसका क्या उत्तर है । दिया जाय; और यह हो नहीं सकता, क्योंकि उनको चाणक्य सुनो, राक्षस अपने स्वामी की मृगया, मद्यपानादिक का जो व्यसन है इससे इस योग्य स्थिर भक्ति से और यहाँ बहुत दिन रहने से यहाँ के नहीं हैं कि हाथी, घोड़ों को सम्हालें और सब सेना की | लोगों का और नंद के सब साथियों का विश्वासपात्र हो बड़ हाथी घोड़े ही हैं । वैसे ही हिंगुरात बलगुप्त को रहा है और उनका स्वभाव सब लोग जान गए हैं। कौन प्रसन्न कर सकता है, क्योंकि उनको सब राज्य उसमें बुद्धि और पौरुष भी है, वैसे ही उसके सहायक पाने से भी संतोष न होगा, और राजसेन और भागुरायण भी हैं और कोषबल भी हैं, इससे जो वह यहाँ रहे तो तो धन और प्राण के डर से भागे हैं ; ये तो प्रसन्न होई | भीतर के सब लोगों को फोड़कर उपद्रव करे और जो नहीं सकते, और रोहिताक्ष, विजयवर्मा का कुछ| यहाँ से दूर रहे तो वह ऊपरी जोड़ तोड़ लगावे पर पूछना ही नहीं है, क्योंकि वे तो और नातेदारों के मान उनके मिटाने में इतना कठिनाई न हो । इससे उसके से जलते हैं और उनका कितना भी मान करो, उन्हें जाने के समय उपेक्षा कर दी गई। थोड़ा ही दिखलाता है ; तो इनका क्या उपाय है। यह ते -तो जब वह यहाँ था तभी उसको वश में अनुग्रह का वर्णन हुआ, अब दंड का सुनिए । यदि हम क्यों नहीं कर लिया ? इन सबों को प्रधान पद पाकर के जो बहुत दिनों से चाणक्य वश क्या कर लें, अनेक उपयों से नन्दकुल के सर्वदा शुभाकांक्षी और साक्षी रहे दंड देकर तो वह छाती में गड़े काँटे की भांति निकालकर दूर दुखी करें तो नंदकुल के साथियों का हम पर से किया गया है ! उनसे दूर करने में और कुछ प्रयोजन ही विश्वास उठ जाय, इससे छोड़ ही देना योग्य समझा, था । सो इन्हीं सब हमारे भृत्यों को पक्षपाती बनाकर राक्षस चंद्र.- तो बल से क्यों नहीं पकड़ रखा ? के उपदेश से म्लेच्छराज की बड़ी सहायता पाकर और चाणक्य- वह राक्षस ऐसा नहीं है, उस पर अपने पिता के वध से क्रोधित होकर पर्वतक का पुत्र जो बल किया जाता तो या तो वह आप मारा जाता या कुमार मलयकेतु हम लोगों से लड़ने को उद्यत हो रहा | तुम्हारी सेना का नाश कर देता । है, सो यह लड़ाई के उद्योग का समय है उत्सव का समय नहीं। इससे गढ़ के संस्कार के समय हम खोवे इक महत नर जो वह पावै नास । कौमुदीमहोत्सव क्या होगा, यही सोचकर उसका | जो वह नासै सैन तुव तौह जिय अति त्रास ।। प्रतिषेध कर दिया । तासों कल बल करि बहुत आने बस करि वाहि । चंद्र. आर्य ! मुझे अभी इसमें बहुत कुछ पूछना | जिमि गज पकरै सुघर तिमि बाँधेंगे हम ताहि ।। चंद्र.- मैं आप की बात तो नहीं काट सकता, पर चाणक्य- भली भाँति पूछो, क्योंकि मुझे भी इससे तो मंत्री राक्षस ही बड़ चढ़ के जान पड़ता है । चाणक्य- (क्रोध से) 'आप नहीं' इतना क्यों चंद्र.- यह पूछता हूँ छोड़ दिया ? ऐसा कभी नहीं है । उसने क्या किया है चाणक्य- हाँ ! मैं भी कहता हूँ। कहो तो? - यह कि हम लोगों के सब अनर्थों की जड़ चंद्र-जो आप न जानते हों तो सुनिए कि वह मलयकेतु है ; उसे आपने भागते समय क्यों नहीं महात्मा- जदपि आपु जीती पुरी तदपि धारि कुशलात चाणक्य- वृषल ! मलयकेतु के भागने के जब लौं जिय चाह्यो रह्यो धारि सीस पै लात ।। समय भी दो ही उपाय थे - या तो मेल करते या दंड डौंड़ी फेरन के समय निज बल जय प्रगटाय ।

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मुद्रा राक्षस ३५३ और - बहुत कुछ कहना है। पकड़ा?