पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४०४

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क्षप.-चाहे दिन अच्छा हो या न अच्छा हो, (आगे आगे मलयकेतु और पीछे प्रतिहारी आते हैं) मलयकेतु के कटक से बिना मोहर लिए कोई जाने नहीं मलय.- (आप ही आप) क्या करें राक्षस का पाता। चित्त मेरी ओर से कैसा है यह सोचते हैं तो अनेक प्रकार सिद्धा.- यह नियम कब से हुआ? के विकल्प उठते हैं, कुछ निर्णय नहीं होता । क्षप.- सुनो, पहिले तो कुछ भी रोक-टोक नहीं नंदवंश को जानिकै ताहि चंद्र की चाह । थी, पर जब से कुसुमपुर के पास आए हैं तब से यह कै अपनायो जानि निज मेरे करत निबाह ।। नियम हुआ है कि बिना मोहर के न कोई जाय न आवे 1 को हित अनहित तासु को यह नहिं जान्यो जात । इससे जो तुम्हारे पास भागुरायण की मोहर हो तो तासों जिय संदेह अति. भेद न कछु लखात ।। जाओ नहीं तो चुप बैठ रहो, क्योंकि पीछे से तुम्हे हाथ (प्रगट) विजये ! भागुरायण कहाँ हैं देख तो ? पैर न बंधवाना पड़े। प्रति.-महाराज! भागुरायण वह बैठे हुए सिद्धा.. क्या यह तुम नहीं जानते कि हम आपकी सेना के जानेवाले लोगों को रहा-खर्च और राक्षस के अंतरंग खेलाडी मित्र हैं ? हमें कौन रोक परवाना बाँट रहे है? सकता है ? मलय.- विजये ! तुम दबे पाँव से उधर से क्षप.-- चाहे राक्षस के मित्र हो चाहे पिशाच के, आओ, मैं पीछे से जाकर मित्र भागुरायण की आँखें बंद बिना मोहर के कभी न जाने पाओगे। करता हूँ। सिद्धा.- भदंत ! क्रोध मत करो, कहो कि प्रति.-जो आज्ञा । (दोनों दबे पाँव से चलते हैं और भासुरक आता है) काम सिद्ध हो । क्षप. जाओ, काम सिद्ध होगा, हम भी पटने भासुरक-(भागुरायण से) बाहर क्षपणक जाने के हेतु भागुरायण से मोहर लेने जाते हैं । आया है, उसको परवाना चाहिए । (दोनों जाते हैं) भागु. अच्छा, यहाँ भेज दो। भासु.-जो आज्ञा । इति प्रवेशक (जाता है) (क्षपणक आता है) (भागुरायण और सेवक आते हैं) क्षप.-श्रावक को धर्म लाभ हो । भागु.- (आप ही आप) चाणक्य की नीति भी भागु.- (छल से उसकी ओर देखकर) यह तो वडी विचित्र है। राक्षस का मित्र जीवसिद्धि है । (प्रगट) भदंत ! तुम कहूँ विरल, कहुँ सघन, कहुँ विफल, कहूँ फलवान । नगर में राक्षस के किसी काम से जाते होंगे। कहुं कुसकहुँ अति थूल, कछु भेद परत नहिं जान ।। क्षप.- (कान पर हाथ रखकर) छी छी! हमसे कहूँ गुप्त अति ही रहत, कबहूँ प्रगट लखात । राक्षस वा पिशाच क्या काम ? कठिन नीति चाणक्य की, भेद न जान्यो जात ।। भागु.- आज तुमसे और मित्र से कुछ प्रेम (प्रगट) भासुरक ! मलयकेतु से मुझे क्षण भर भी कलह हुआ है, पर यह तो बताओ कि राक्षस ने तुम्हारा दूर रहने में दुःख होता है इससे बिछौना बिछा तो | कौन अपराध किया है ? बैठे। क्षप.- राक्षस ने कुछ अपराध नहीं किया है, सेवक-जो आज्ञा । बिछौना बिछा है अपराधी तो हम हैं बिराजिए। भागु.- ह ह ह ह । भदंत । तुम्हारे इस कहने भागु. (आसन पर बैठकर) भासुरक ! बाहर से तो मुभको सुनने की और भी उत्कंठा होती है । कोई मुझसे मिलने आवे तो आने देना । मलय- (आप हो आप) मुझको भी । सेवक-जो आजा जाता है भागु. तो भदंत । कहते क्यों नहीं? भागु.-(आप ही आप करुणा से) राम राम ! क्षप.- तुम सुनके क्या करोगे ? मलयकेतु तो मुझसे इतना प्रेम करता है, मैं उसका भागु.

- तो जाने दो, हमें कुछ आग्रह नहीं है,

बिगाड़ किस तरह करूंगा? गुप्त हो तो मत कहो। अथवा- क्षप.- नहीं उपासक ! गुप्त ऐसा नहीं है, पर जस-कुल तजि, अपमान सहि, धन-हित परबस होय ।। वह बहुत बुरी बात है । जिन बेच्यो निज प्रान तन, सबै सकत करि सोय ।। भारतेन्दु समग्र ३६० 1