पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३१

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रा.- (हाथ जोड़कर प्रणाम करती है। नसे चोर लम्पट खल लखि जग तुव प्रताप प्रगटायो । ब्रा.-महाराज गुरूजी ने यह अभिमंत्रित जल भेजा है इसे महारानी पहिले तो नेत्रों से लगा लें और मागध बंदी सूत चिरैयन मिलि कलरोर मचायो ।। फिर थोड़ा सा पान भी कर लें और यह रक्षाबंधन भेजा तुव कस सीतल पौन परसि चटकी गुलाब की कलियां । अति सुख पाइ असीस देत सोई करि अंगुरिन चट अलियां।। है इसे कुमार रोहिताश्व की दाहिनी भुजा पर बांध दें भए धरम मैं थित अब द्विज जन प्रजा काज निज लागे । फिर इस जल से मैं मार्जन करूंगा । रा.- नित्र में जल लगाकर और कुछ मुंह फेर | रिपु जुवती मुख कुमुद मन्द जन चक्रवाक अनुरागे ।। कर आचमन करके) मालती यह रक्षाबन्धन तू सम्हाल अरध सरिस उपहार लिए नृप ठाढ़े तिन कह तोखो । के अपने पास रख जब रोहितास्व मिले उसके दहिने न्याव कृपा सों ऊंच नीच सम समुझि परसि कर पोखौ। हाथ पर बाँध दीजियो । (नेपथ्य में से बाजे की धुनि सुन पड़ती है) स.-जो आज्ञा (रक्षाबन्धन आने पास रखती रा.-महाराज ठाकुरजी के मंदिर से चले, देखो बाजों का शब्द सुनाई देता है और बंदीलोग भी गाते आते ब्रा.- तो अब आप सावधान हो जाय मैं मार्जन करनूं । स.- आप कहती हैं चले ? वह देखिये आ पहुंचे रा.- (सावधान होकर) जो आज्ञा । कि चले । ब्रा.- (दुर्बा से मार्जन करता है 1 रा.- (घबड़ा कर आदर के हेतु उठती हैं) देवास्त्वामभिषिचन्तुब्रह्मविष्णु शिवादय : (परिकर' सहित महाराज हरिश्चन्द्रर आते हैं। गन्धा :किन्नरा : नागा : रक्षां कुर्वन्तुतेसदा (रानी प्रणाम करती है और सब लोग पितरोगुह्यकायक्षा : देव्योभूताचमातर : यथा स्थान बैठते हैं) सधैत्वामभिषिचन्तुरक्षाकुर्वन्तुतेसदा ह.- (रानी से प्रीतिपूर्वक) प्रिये ! आज तुम्हारा भद्रमस्तुशिवंचास्तुमहालक्ष्मीप्रसीदतु मुखचन्द्र मलीन क्यों हो रहा है ? पतिपुत्रयुतासाध्विजीत्ववं शरदाशत ।। रा.-पिछली रात मैंने कुछ दु:स्वप्न देखे हैं (मार्जन का जल पृथ्वी पर फेंककर) जिनसे चित्त व्याकुल हो रहा है । यत्पापंरोगमशुभंतद्रेप्रतिहतमस्तु ह.--प्रिये ! यद्यपि स्त्रियों का स्वभाव सहज ही (फिर रानी पर मार्जन करके) यन्मंगलशुभं सौभाग्यधनधान्यमारोग्यं बहु भीरु होता है पर तुम तो बीर कन्या बीरपत्नी और पुत्रत्वं तत्सर्वमीशप्रसादातब्राम्हणवचनातत्वय्यस्तु बीरमाता हो तुम्हारा स्वभाव ऐसा क्यों ? नाथ! मोह से धीरज जाता रहता है। (मार्चन कर के फूल अक्षत रानी के हाथ में देता है। रा.- (हाथ जोड़कर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है। ह.- सो गुरु जी से कुछ शान्ति करने को नहीं महाराज गुरू जी से मेरी ओर से बिनती करके दंडवत कह दीजिएगा। रा.-महाराज ! शान्ति तो गुरू जी ने कर दी ब्रा.-जो आज्ञा (आशीर्वाद देकर जाता है) रा.-आज महाराज अब तक सभा में नहीं ह.-तब क्या चिन्ता है शास्त्र और ईश्वर पर आए? विश्वास रक्खो सब कल्याण होगा । सदा सर्वदा सहज स.- अब आते होंगे पूजा में कुछ देर लगी | मंगल साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी (नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं) ईश्वर की इच्छा ही समझ के संतोष करना चाहिए । (राग भैरव) रा.-महाराज ! स्वप्न के शुभाशुभ का विचार प्रगटहु रबिकुलरबि निसि बीती प्रजा कमलगन फूले। कुछ महाराज ने भी ग्रंथों में देखा है ? मन्द परे रिपुगन तारा सम जन भय तम उन भूले ।। ह.- (रानी की बात अनसुनी करके) स्वप्न तो १. राजा के परिकर में प्रथम मंत्री नीमा पैजामा कमरबंद दुशाला पगड़ी सिरपेच सजे । दो मुसाहिब साधारण सभ्यों के भेष में । एक निशान वाला सेवक के भेष में । निशान पर सूर्य के नीचे "सत्ये नास्ति. भयंक्वचित" लिखा हुआ । चार शस्त्रधारी अंगरक्षक दो सेवक । २. सपेद वा केसरी जामा पैजामा कमरबंद मर्दाना सब गहना सिर पर किरीट वा पगड़ी सिरपेंच तुर्रा हाथ में तलवार दुशाला वा कोई चमकता रुमाल ओढ़े । कहलया । होगी। सत्य हरिश्चन्द्र ३८७