पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४३९

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घाट -वह कौन ? mA (मत्त की भांति चेष्टा करता है। जो कर तुमको नहीं चुकावै सो किरिया करने नहिं पावै ।। ह.- (बड़े दु:ख से) अहह ! बड़ा दारुण व्यसन चलो है । (विश्वामित्र से) भगवान मैं पैर कर करो उपस्थित निवास । पड़ता हूँ, मैं जन्म भर आप का दास होकर रहूंगा, मुझे भए आज से मेरे दास । चांडाल होने से बचाइए ।। ह.-जो आला । सत्यहरिश्चन्द्र का तीसरा अंक समाप्त हुआ । बि. .-छि : मूर्ख ! भला हम दास लेके क्या (जवनिका गिरती है) करेंगे। 'स्वयंदासास्तपस्विन : ह.-(हाथ जोड़कर) जो आज्ञा कीजियेगा हम सब करेंगे। चौथाक बि.-सब करेगा न ? (ऊपर हाथ उठाकर) स्थान-दक्षिण स्मशान, पीपल का बड़ा पेड़, कर्म के साक्षी देवता लोग सुनें, यह कहता है कि जो चिता, मुरदे, कौए. सियार, कुत्ते, हड्डी, इत्यादि । आप कहेंगे मैं सब करूंगा। (कम्मल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा' ह.- हां हां जो आप आला कीजिएगा सब हरिश्चन्द्र फिरते दिखाई पड़ते हैं) ह. (लंबी सांस लेकर) हाय ! अब जन्म भर करूंगा। यही दुख भोगना पड़ेगा। बि.-तो इसी गाहक के हाथ अपने को बेचकर जाति दास चंडाल की. घर घनघोर मसान । अभी हमारी शेष दक्षिणा चुका दे । ह.- जो आज्ञा । (आप ही आप) अब कौन सोच कफन खसोटी को करम, सबही एक समान ।। न जाने विधाता का क्रोब इतने पर भी शांत हुआ कि है। (प्रगट धर्म से) तो हम एक नियम पर बिकेंगे। नहीं । बड़ों ने सच कहा है कि दु:ख से दु:ख जाता है। धर्म. दक्षिणा का ऋण चुका तो यह कर्म करना पड़ा । हम क्या ह. क्या सोचें । अपनी अनाथ प्रजा को या दीन नातेदारों को भीख असन कम्मल बसन रखिहैं दर निवास ।। या अशरण नौकरों को. या रोती हुई दासियों को, या सूनी जो प्रभु आज्ञा होई है करि हैं सब हवै दास ।। अयोध्या को, या दासी बनी महारानी को, या उस अनजान धर्म.-ठीक है लेव सोना (दर से राजा के बालक को, या अपने ही इस चंडालपने को । हा! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोधभरी और रानी ने ह.--लेकर हर्ष से आप ही आप) मृण छुट्यो जाती समय करुणाभरी दृष्टि से जो मेरी ओर देखा था वह पूर्यो बचन द्विजह न दीनो शाप । सत्य पालि चंडालहू अब तक नहीं भूलती । (घबड़ा कर) हा देवी ! सूर्यकुल की बहू और चद्रकुल की बेटी होकर तुम बेची गई और दासी (प्रकट विश्वामित्र से) भगवन् ! लीजिए यह मोहर । बनी । हा! तुम अपने जिन सुकुमार हाथों से फूल की बि.- (मुंह चिढ़ाकर) सचमुच देता है ? माला नहीं गंध सकती थीं उनसे बरतन कैसे माजोगी ! ह.- हां हां यह लीजिए । (मोहर देते हैं) (मोह प्राप्त होने चाहता है पर सम्हल कर) अथवा क्या बि.- (लेकर) स्वस्ति । (आप ही आप) बस हुआ ? यह तो कोई न कहेगा कि हरिश्चन्द्र ने सत्य अब चलो बहुत परीक्षा हो चुकी । (जाना चाहते हैं) ह. (हाथ जोड़कर) भगवन दक्षिणा देने में देर बेचि देह दारा सुअन होई दासह मन्द । राख्यो निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।। होने का अपराध क्षमा हुआ न ? बि.- हां क्षमा हुआ । अब हम जाते हैं। (आकाश से पुष्पवृष्टि होती है) अरे ! यह असमय में पुष्पवृष्टि कैसी ? कोई पुन्यात्मा ह.-भगवन प्रणाम करता हूँ। (विश्वामित्र आशीर्वाद देकर जाते हैं। का मुरदा आया होगा । तो हम सावधान हो जाय । (लट्ठ ह.- अब चौधरी जी (लज्जा से रुककर) स्वामी | कंध रखकर फिरता हुआ) खबरदार खबरदार बिना हम से कहे और बिना हमें आधा कफन दिए कोई संस्कार की जो अज्ञा हो वह करें। धर्म. (मत्त की भांति नाचता हुआ) न करे । (यही कहता हुआ निर्भय मुद्रा जाओ अभी दक्खिनी देखता फिरता है) (नेपथ्य में कोलाहल सुनकर) हाय मसान । लेओ वहां कफ्फन का दान ।। हाय ! कैसा भयंकर स्मशान है ! दर से मंडल बांध बांध, आंचल में मोहर देता है) होई आजु मोहि दास ।। छोड़ा। से इधर उधर सत्य हरिश्चन्द्र ३९५ 28