पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४०

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सहारे । करत तिनकरी ।। कर चोंच बाए. ईना फैलाए कंगालों की तरह मुरदों पर गिद कैसे गिरने है और कैसा मांस नोच नोंच कर आपस में लड़ते और चिलाते हैं । इधर अत्यन्त कर्णकद अमंगल के नगाई की भाति एक के शब्द की लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं । उधर चिर्राइन फैलाती हुई चट चट करती चिता कैसी जल रही हैं, जिन में कहीं से मांस के टुकड़े उड़ते हैं, कहीं लोह वा चरबी बहती है । आग का रंग मास के संबंध से नीला पीला हो रहा है । ज्वाना धूम-घूम कर निकलती है । आग कभी एक साथ धधक उठती है कभी मन्द हो जाती है । धुआँ चारों ओर छा रहा है । (आगे देखकर आदर से) अहा ! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है । शव ! तुम धन्य हो कि इन पशुओं के इतने काम आते हो । अतएव कहा है 'मरनो भलो बिदश को जहां न अपनो कोय । माटी खायं जनावरा महा महोच्छव होय ।। सिधारे ।। जीवत जेहि लाख सब मन लोभा ।। प्रानहं ते बर्बाद जा कह चाहत । ता कह आज सबै मिलि दाहत ।। फूल बोझ है जिन न तिन पै बाझ काठ बह द्वार ।। सिर पीड़ा जिन की नहिं हरी 1 क्रिया छिन जे न म कह न्यारे । ते बन्धन छोड जो कोर महीप निहारत । आज काक तेहि भोज विचारत ।। भुज बल जे नहिं भुवन समाए । ते लखियत मुख कफन छिपाए ।। नरपति भेद बिन गर्ने काल सब एकहि लेखे ।। सुभग करूप अमृत बिख साने । आज सबै इक भाव पुरु दीन कोउ अत्र नाही। रहे नाव हीं ग्रन्थन विकाने ।। माही ।। वस्तु सिर पर बैठयो काग आंख दोउ खान निकारत । खानत जीर्भाह स्वार अहि आनन्द उर धारत । गिर जात्र कह खोदि खोटि के मास उचारत । स्वान गरिन काटि काटि के खान विचारत । वह चील नाचि तो बात तुच माद बढ्यो सबको हियो । मन ब्रह्मभोज जिजमान कोट आजु भिखारन कह दियो। सोई मख मोई उदर सोई कर पद दाय। भयो आज कछ और ही परसन जेहि नहिं कोइ ।। हाड़ मांस लाला रकत बसा तुचा सब सोय । छिन्न भिन्न दरगन्धमय मरे मनुस के हाय ।। कादर जेहि लांस के डरत पंडित पावत लाज । अहो! व्यर्थ संसार को विषय बासना साज ।। अहा ! शरीर भी कैसी निस्मार 1 (हा! मरना भी क्या वस्तु है।) सोई मुख जेहि चन्द मोइ अंग हि प्रिय करि जान्यौ ।। सोई भूज जे पिय गर द्वार। मोई भज जिन रन विक्रम पार ।। सोई पट जिह सेवक सोई छवि जेहि देखि आनन्दन ।। सोई रसना जह अमृत सोई सनी के हिय नारि जमानी ।। जहाँ जहर साई सिर जहं निज बच टेका ।। सोई बिमय अंग सवाए ।। आजु जीव बिन धरीन सुहाए।। कहा गई वह अहा! देखो वही सिर जिसपर मंत्र से अभिषेक होता था, कभी नवरत्न का मुकुट रक्खा जाता था. जिसमें इतना अभिमान था कि इन्द्र को भी तृच्य गिनता था, और जिसमें बड़े-२ राज जीतने के मनोरथ भर थे. आज पिशाचों का गेंद बना है और लोग उसे पैर से छने में भी धिन करते हैं। (आगे देखकर) अरे यह स्मशान देवी हैं। अहा कात्यायनी को भी कसा वीभत्स उपचार प्यारा है। यह देखो शेमलोगों ने ससे गले सड़े फलों की माला गंगा में से पकर पकड़ कर देवी को पहिना दी है और कफन की ध्वजा लगा दी है । मरे बैल और भेंसों के गले के घंटे पीपल की डार में लटक रहे हैं जिन में लोलक की जगह नली की हड्डी लगी है । घट के पानी से चारों ओर से देवी का अभिषेक होता है और पेड़ के खंभे में लोह के थापे लगे हैं । नीचे जो उतारों की बलि दी गई है उस के खाने को कुत्ते और सियार लड़-लड़ कर कोलाहल मचा रहे हैं। (हाथ जोड़ कर) 'भगवति! चंडि! प्रते! प्रते विमाने! लसत्पते । प्रेतास्थि रौद्ररूपे! प्रेतानि । भैरव ! नमस्ते" । नेपथ्य में) राजन हम केवल नडालों के प्रणाम के योग्य हैं । तुम्हार प्रणाम से हमें लज्जा आती है । मांगो क्या बर मांगते हो। बखान्यो । बन्दत । बानी । साई हृदय अनेका। ह.-- (सुनकर आश्चर्य से) भगवति ! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमारे स्वामी का कल्याण कीजिए (नेपथ्य मे) साधु महाराज हरिश्चन्द्र साधु ! संदर

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भारतेन्दु समग्र ३९६