पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४५१

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एक मात्र आनय, सौजन्य का एकमात्र पात्र, भारत का आए हैं इन्हें कोई खेल दिखाओ । एकमात्र हित, हिन्दी का एकमात्र जनक, भाषा सू.-आज मेरा चित्त तो उन्ही के चरित्र में नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी मगन है आज तुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता । हो (नेत्र में जल भर कर) हा सज्जनशिरोमणे ! पा.- तो उनके चरित्र के अनुरूप ही कोई नाटक करो। कुछ चिन्ता नहीं तेरा तो बाना है कि कितना ही सु.- ऐसा कौन नाटक है यों तो सभी नायकों के भी 'दुख हो उसे सुख ही मानना' लोभ के परित्याग चरित्र किसी किसी विषय में उससे मिलते हैं पर के समय नाम और कीर्ति तक का परित्याग कर दिया और जगत से विपरीत गति चलके तूने | आनुपूवीं चरित्र कैसे मिलेगा । पा.- मित्र मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो प्रेम की टकसाल खड़ी की है । क्या हुआ जो निर्दय क्योंकि ! उसके नायक चारुदत्त का चरित्रमात्र इनसे ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रख कर आदर सब मिलता है केवल बसन्तसेना और राजा की हानि नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है ; तुझे इनसे क्या, प्रेमी लोग जो तेरे और तू जिन्हें सरबस है सू.- तो फिर भी आनुपूर्वी न हुआ और पुराने वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेंगे नाटक खेलने इनका जी भी न लगेगा कोई नया खेलें। और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेंगे पा.- (स्मरण करके हाँ हाँ वह नाटक खेलौ जो (नेत्रों से आंसू गिरते हैं) मित्र ! तुम तो दूसरों का तुम उस दिन उद्यान में उनसे सुनते थे, - वह उनके अपकार और अपना उपकार दोनों भूल जाते हो तुम्हें और इस घोर काल के बड़ा ही अनुरूप है उसके खेलने से लोगो का वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई इनकी निन्दा से क्या इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हो स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोक पड़ेगा और वह नाटक मी नई पुरानी दोनों रीति मिलके बना है। वहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रखके बिहार करोगे, क्या तुम अपना वह कबित्त भूल गए - सू.- हाँ हाँ प्रेमजोगिनी - अच्छी सूरत पड़ी - तो चलो यों ही सही इसी बहाने उसका "कहेंगे सबै ही नैन नीर भरिभरि पाछे प्यारे हरिचंद स्मरण करै। की कहानी रहि जायगी" मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर पा.- चलो ।। (दोनों जाते हैं) सब आरोप व्यर्थ है ; हा ! बड़ा विपरीत समय है (नेत्र से आँसू बहते हैं)। अर्द जवनिका पतन पा. -मित्र जो तुम कहते हो सो सब सत्य है पर ।। इति प्रस्तावना ।। काल भी तो बड़ा प्रबल है । कालानुसार कर्म किए बिना भी तो काम नहीं चलता । सु.- हाँ न चले तो हम लोग काल के अनुसार चलेंगे, कुछ वह लोकोत्तर चरित्र थोड़े ही काल के प्रथम अंक पहिले गांक के पात्र पा.--पर उसका परिणाम क्या होगा? टेकचंद एक महाजन बनिये सू.- क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है हो छक्कूजी ऐ चुका जो होना था। माखनदास वैष्णव बनियाँ पा.-तो फिर आज जो ये लोग आये हैं सो यही धनदास नाम के वैष्णव सुनने आए हैं? बनितादास सू. .-तो ये सब सभासद तो उसके मित्रवर्गों में मित्र कीर्तन करनेवाला हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं हैं उनका जी भी उसी की झापटिया कोड़ा मार कर मंदिर की भीड़ बातों में लगता है ये क्यों न इन बातों को आनन्दपूर्वक सुनेंगे। जलपरिया पानी भरने वाला पा.- परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलेगा बालमुकुन्द दो भाई मुलतानी वैष्णव केन । देखो ये हिंदी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से । मलजी

प्रेम योगिनी ४०७ अनुसार चलैगा। हटाने वाला os