पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९४

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प्रानन की हांसी कौन काम की देखो तो आज सोमवार है यह पत्र तो मैं आप उन्हें जाकर दे आऊंगी और मिलने नंदगांव में हाट लगी होयगी मैं वहीं जाती इन सबने की भी बिनती करूंगी । बीच की आय धरी, मैं चन्द्रावली की पाती वाके यार (नेपथ्य में बूढ़ों के से सुर से) सौंप देती इतनों खुटकोऊ न रहतो । (घबड़ा कर) अरे हां तू सब करेगी। आई ये गौवें तो फेर इतेही कू अरराई । (दौड़कर जाती चं.- (सुन कर और सोचकर) अरे यह कौन है है और चोली में से पत्र गिर पड़ता है) (चंपकलता आती (देख कर) न जाने कोऊ बूढी फूस सी डोकरी है ऐसो न है) होय कै यह बात फोड़ि के उलटी आग लगावै, अब तो चं.ल.- (पत्र गिरा हुआ देख कर) अरे ! यह पहिले याहि समझधावनो परयो, चलू (जाती है) चिट्ठी किसकी पड़ी है किसी की हो देखू तो इसमें क्या इति द्वितीया के भेद प्रकाश नामकों कावतार : ।। लिखा है (उठा कर देखती है) राम राम ! न जाने किस दुखिया की लिखी है कि आसुओं से भीज कर ऐसी चपट गई है कि पढ़ी ही नहीं जाती और खोलने में फट जाती है (बड़ी कठिनाई से खोल कर पढ़ती है) तीसरा अंक प्यारे! ।। समय तीसरा पहर, गहिरे बादल छाये हुए ।। क्या लिखू! तुम बड़े दुष्ट हो चलो भला सब अपनी ।। स्थान तालाब के पास एक बगीचा ।। बीरता हम पर दिखानी थी। हां! भला मैंने तो लोक ।। झूला पड़ा है, कुछ सखी झूलती कुछ इधर उधर वेद अपना विराना सब छोड़कर तुम्हें पाया तुमने हमें फिरती हैं ।। छोड़ के क्या पाया और जो धर्म उपदेश करो तो धर्म (चन्द्रावली, माधवी, काममंजरी, विलासिनी, इत्यादि से फल होता है, फल से धर्म नहीं होता निर्लज्ज, लाज एक स्थान पर बैठी हैं, चन्द्रकान्ता, वल्लभा, श्यामला, भी नहीं आती मुंह ढको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते मामा, मूले पर हैं, कामिनी और माधुरी हाथ में हाथ हो, चलो वाह ! अच्छी प्रीति निबाही, जो हो तुम जानते दिए घूमती हैं) ही हो, हाय कभी न करूँगी योंही सही अन्त मरना है का.-सखी. देख बरसात भी अब की किस धूम मैंने अपनी ओर से खबर दे दी अब मेरा दोष नहीं धाम से आई है मानो कामदेव ने अबलाओं को निर्बल बस । जान कर इनके जीतने को अपनी सैना भिजवाई है 1 "केवल तुम्हारी" धूम से चारों ओर से घुम घुम कर बादल परे के परे (लंबी सांस लेकर) हा ! बुला रोग है न करै किसी जमाये वगपंगति का निसान उड़ाये लपलपाती नंगी के सिर बैठे बिठाए यह चक्र घहराय, इन चिट्टी के तलवारसी बिजली चमकाते गरज-गरज कर डराते बान देखने से कलेजा कापा जाता है, बुरा ! तिसमें स्त्रियों के समान पानी बरखा रहे हैं और इन दुष्टों का जी की बड़ी बुरी दशा है क्योंकि कपोतब्रत बुरा होता है कि बनने को मोर करखासा कुछ अलग पुकार पुकार गा गला घोंट डालो मुंह से बात न निकले । प्रेम भी इसी | रहे हैं । कुल की मर्याद ही पर इन निगोड़ों की चढ़ाई का नाम है, राम राम उस मुंह से जीम खींच ली जाय है । मनोरथों से कलेजा उमगा आता है और काम की जिससे हाय निकले । इस व्यथा को मैं जानती हूं कि उमंग जो अंग अंग में भरी है उनके निकले बिना जी और कोई क्या जानेगा क्योंकि जाके पांव न भई बिवाई | तिलमिलाता है । ऐसे बादलों को देखकर कौन लाज सो क्या जाने पीर पराई । यह तो हुआ पर यह चिट्ठी है की चहर रख सकती है और कैसे पतिव्रत पाल सकती किसी की यह न जान पड़ी (कुछ सोचकर) अहा जानी ! | है ! निश्चय यह चनद्रावली ही की चिट्ठी है। क्योंकि माधु.- विशेष कर वह जो आप कामिनी हो अक्षर भी उसी के से हैं और इस पर चन्द्रावली का (हंसती है)। चिन्ह भी बनाया है । हा ! मेरी सखी बुरी फंसी, मैं तो का.-चल तुझे हंसने ही की पड़ी है। देख पहिले ही उसके लच्छनों से जान गई थी पर इतना भूमि चारों ओर हरी हरी हो रही है । नदी नाले बावली नहीं जानती थी, अहा गुप्त प्रीति भी विलक्षण होती है, तालाब सब भर गये । पक्षी लोग पर समेटे पत्तों की देखो इस प्रीति में संसार की रीति से कुछ भी लाभ आड़ में चुपचाप सकपके से होकर बैठे हैं । बीरबहूटी नहीं, मनुष्य न इधर होता है न उधर का, संसार के और जुगुनूं पारी पारी रात और दिन को इधर उधर सुख छोड़कर अपने हाथ आप मूर्ख बन जाता है । जो हो बहुत दिखाई पड़ती हैं । नदियों के करारे धमाधम टूट Desk भारतेन्दु समग्र ४५०

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