पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९८

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देखि घनस्याम घनस्याम की सुरतिकरि जियमैं बिरहघटा घहरि घहरि उठे। त्यौहीं इन्द्रधनु बगमाल देखि बनमाल मोतीलर पीकी जय लहरि लहरि उठे। हरीचंद मोर पिक धुनि सुनि बंसीनाद बांकी वार बार छहरि छहरि उठे। देखि देखि दामिनी की दुगुन दमक पीत पट छोरे मेरे हिय फहरि फहरि उठे। हाय ! जो बरसात संसार को सुखद है वह मुझे इतनी दुखदाई हो रही है । मा.-तौ न दुखदायिनी होयगी । चल उठि घर चलि । काम.- हां चलि । (सब जाती हैं) ।।जवनिका गिरती हैं।। ।। इति वर्षा वियोग बिपत्ति नाम तृतीय अंक ।। 'सफाई करावै और एक लाल जू सों मिलिबे की कहै । का. म.-लाल जी सों मैं कहूंगी । मैं विन्ने बहुती लजाउंगी और जैसे होय गो वैसे यासों मिलाऊंगी। मां. सखी बेऊ का करै । प्रिया जी के डर सों कछू नहीं कर सके। बि.- सो प्रिय जी को जिम्मा तेरो हुई है। मा. हां हां, प्रिया जी को जिम्मा मेरो । बि. तौ याके घर को मेरौ । मा.-भयो फेर का । सखी काहू बात को सोच मति करै । उठि। चं.-सखियो ! व्यर्थ क्यौं यत्न करती हो । मेरे भाग्य ऐसे नहीं हैं कि कोई काम सिद्ध हो । मा.-सखी हमारे भाग्य तो सीधे हैं । हम अपने भाग्य बल सो सब काम करेंगी। का.म.-सखी तू व्यर्थ क्यों उदास भई जाय है। जब तक सांसा तब तक आसा । मां..-तौ सखी बस अब यह सलाह पक्की भई । जब ताई काम सिद्ध न होय तब ताई काहुवै खबर न परै । वि.-नहीं खबर कैसे परैगी? का मं.- (चन्द्रावली का हाथ पकड़ कर) ले सखी अब उठि। चलि हिंडोरों भूलि । मां.-हां सखी अब तौ अनमनोपन छोडि । चं.-सखी छटा ही सा है पर मैं हिंडोरे न भूलूंगी । मेरे तो नेत्र आप ही हिंडोरे भूला करते हैं । पल पटुली पैं डोर प्रेम लगाय चारु आसा ही के खंभ दोय गाढ़ के धरत हैं। झुमका ललित काम पूरन उछाह भर्यो लोग बदनामी झूमि झालर भरत हैं ।। हरीचन्द आंसू दृग नीर बरसाइ प्यारे पिया गुन मान सो मलार उचरत हैं। मिलन मनोरथ के झोंटन बढ़ाइ सदा विरह हिंडोरे नैन मूल्योई करत हैं ।। और सखी मेरा जी हिंडोरे पर और उदास होगा । मां.-तौ सखी तेरी जो प्रसन्नता होय ! हम तौ तेरे सुख की गाहक हैं। चं. हा ! इन बादलों को देख कर तो और भी जी दुखी होता है। ॥चौथा अंक। ।। स्थान चन्द्रावली जी की बैठक ।। खिड़की में से यमुना जी दिखाई पड़ती हैं । पलंग बिछी हुई. परदे पड़े हुए इतरदान पानदान इत्यादि सजे (१ जोगिनी आती है) जो.- अलख! अलख ! आदेश आदेश गुरू को! अरे कोई है इस घर में ? - कोई नहीं बोलता । क्या कोई नहीं है ? तो अब मैं क्या करूं? बैठं । का चिन्ता है । फकीरों को कहीं कुछ रोक नहीं । उसमें भी हम प्रेम की जोगी । तो अब कुछ गावै । (बैठकर गाती है। "कोई एक जोगिन रूप कियें । भौहै बंक छकोहे लोयन चलि चलि कोयन कान छिपें ।। सोभा लखि मोहत नारीनर बारि फेरि जल सबहिं पियें। नागर मनमथ अलख जगावत गावत कांधे बनी लियै २१ १. गेरुआ सारी गहिना सब जनाना पहिने, रंग सांवला । सिंदूर का लम्बा टीका वेड़ा । बाल खुले हुए । हाथ में सारंगी लिये हुए । नेत्र लाल । अत्यन्त सुन्दर । जब जब गावैगी सरंगी बजा कर गावैगी । काफी। भारतेन्दु समग्र ४५४