पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५०८

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चौथा अंक | टिकस मी यहाँ आते होंगे सो उनको साथ लिए जाओ (कमरा अमेवी सजा हुता, मेज, कुरसी लगी हुई। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। कुरसी पर भारत दुदेव घेठा है) अनक्य और अधकार की सहायता से तुम्हें कोई भी (रोग का प्रवेश) | रोक न सकेगा । यह लो पान का बीड़ा लो । (बीड़ा देता रोग– (गाता हुआ) जगत् सब मानत मेरी आन। है) जगत सब मानत मेरी आन (रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है) मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान । भारतदु.-बस, अब कुछ चिंता नहीं. चारों | मृत्यु कलंक मिटायत में ही मो सम और न आन । ओर से तो मेरी सेना ने उसको घेर लिया, अब कहाँ परम पिता हम ही वैद्यन के अत्तारन के प्रान ।। बच सकता है। (आलस्य का प्रवेश मेरा प्रभाव जगत विदित है । कुपथ्य का मित्र और पथ्य का भाव में ही हूँ। लैलोक्य में ऐसा कौन है आलस्य.- हहा ! एक पोस्ती ने कहा : पोस्ती जिसपर मेरा प्रभुत्व नहीं । नजर, श्राप, मूत, प्रेत. ने पी पोस्त नो दिन चले अढ़ाई कोस । दूसरे ने जवाब टोना, टनमन देवता सब मेरे ही नामांतर है। दिया. अये वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा डोगा । | मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने पडित, सि पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कैंडी के उस पार या इस | लोगों को ठगते है । (आतक से) मला मेरे प्रबल प्रताप पार ठीक है । है। एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे और को ऐसा कौन है जो निवारण करे । हह ! चुगी की उसी राह से एक सवार जाता था । पहिले ने पुकारा कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है. यास | "भाई सवार, सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी नहीं जानती कि जितनी सड़क चौड़ी होगी उतने ही हम | छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुंह में तो डाल ।" सवार ने भी जस जस सुरसा बदन बढ़ाश, तासु दुगुन कपि रूप | कहा "अजी तुम बड़े आलसी हो । तुम्हारी छाती पर दिखाया' । (भारतदुर्दैव को देखकर) महाराज! क्या आन पड़ा है सिर्फ हाथ से उठाकर मुंह में डालने में वह टी आशा है? आलस हे !" दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा भारततु.-आज्ञा क्या है. भारत को चारों ओर आलसी है । रात भर कुत्ता मेरा मुंह चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका ।" सच है किस रोग-महाराज ! भारत तो अब मेरे प्रवेशमात्र | जिंदगी के वास्ते तकलीफ उठाना ; मजे में हालमस्त से मर जायगा । घेरने का कौन काम है ? धन्वंतरि | पड़े रहना । सुख केवल हम में है 'आलसी पड़े कुएं में और काशिराज दिवोदास का अब समय नहीं है। और वहीं चैन है।' न सुश्रुत, वाग्भट्ट, चरक ही है। बैदगी अब केवल (गाता है) जीविका के हेतु बची है । काल के बल से औषधों गजल- गुणों और लोगों की प्रकृति में भी भेद पड़ गया । पस दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा । अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेंगे मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा ।। जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न बिस्तर प मिस्ले लोय पड़े रहना हमेशा । बंदर की तरह पम मचाना नहीं अन्या ।। | होगा ; तब मला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे ! हम भेजेगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी । भला "रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।" छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा ।। इनको हिंदू लोग क्या रोकेगे? ये किधर से चढ़ाई करते है और केसे लड़ते है जानेगे तो हई नहीं, फिर उठ करके घर से कौन चले यार के घर तक "मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।" छुट्टी हुई वरच महाराव, इन्हीं से मारे जायेंगे और इन्ही को देवता करके पूजेगे, यहाँ तक कि मेरे शनु डाक्टर पोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे । और विद्वान इसी विस्फोटक के नास का उपाय टीका उमरा को हाथ पैर न. नही अच्छा ।। लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के सिर भारी चीज है इसे तकलीफ हो तो हो । डर से न मानेंगे और उपाय आछत अपने हाथ प्यारे पर जीम विचारी को सताना नहीं अच्छा ।। फाको से मरिए पर न कोई काम कीजिए भारततु.-तो अच्छा तुम जाओ । महर्ष और । दुनिया नही अच्छी है जमान नहीं अच्छा १. मोय अदमी कमाई लेता हुआ धीरे धीरे आवेगा। से घर शो बच्चों की जान लेंगे। भारतेन्दु समग्र ४६४