पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५१०

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होगा। अंध. अंध. जो मुझसे विमुख हो ? (गाती है) .-आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु (राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार) है, कहिए मैं विलायत जाऊँ। मदवा पीले पागल जोबन बीत्या जात । भारतदु.

-नहीं, विलायत जाने का अभी

बिनु मद जगत सार का नाहीं मान हमारी बात ।। समय नहीं, अभी वहाँ त्रेता, द्वापर है। पी प्याला छक छक आनंद से नितहि साँझ और प्रात। अंध.-नहीं, मैंने एक बात कही । भला जब झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात ।। तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के हाथी मच्छड़, सूरज जुगुन जाके पिए लखात । क्या करूंगा? गैस और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा ऐसी सिदि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात ।। भंग न हो जाएगी। (राजा को देखकर) महाराज! कहिए क्या हुक्म भारता. हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो । बस 'बहुत बुझाइ भारतदु.-- हमने बहुत से अपने वीर हिंदुस्तान तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ ।' में भेजे हैं । परतु मुझको तुमसे जितनी आशा है उतनी बहुत अच्छा, मैं चला । बस जाते ही और किसी से नहीं है । जरा तुम भी हिंदुस्तान की देखिए क्या करता हूँ। निपध्य में वैतालिक गान और तरफ जाओ और हिंदुओं से समझो तो। गीत की समाप्ति में क्रम से पूर्ण अंधकार और पटाक्षेप) मदिरा-हिंदुओं के तो मैं मुद्दत से मुंहलगी निहचे भारत को अब नास । हूँ, अब आपकी आज्ञा से और भी अपना जाल जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास।। फैलाऊंगी और छोटे बड़े सबके गले का हार बन अब कहुँ सरन तिन्हें नहिं मिलिहैं हवैहै सब बल चूर । जाऊँगी । (जाती है) बुधि विद्या धन धान सबै अब तिनको मिलिहै धूर ।। (रंगशाला के दीपो में से अनेक बुझा दिए जायंगे) अब नहिं राम धर्म अर्जुन नहिं शाक्यसिंह अरु व्यास । (अंधकार का प्रवेश) करिहै कौन पराक्रम इनमें को दैहे अब आस ।। (आंधी आने की भौते शब्द सुनाई पड़ता है) सेवाजी रनजीतसिंह हू अब नहिं बाकी जौन । अंधकार-- (गाता हुआ स्खलित नृत्य करता करिहैं कछू नाम भारत को अब तो नृप मौन ।। है) वही उदैपुर जैपुर रीवां पन्ना आदिक राज । (राग काफी) परबस भए न सोच सकहिं कछु करि निज बल बेकाज ।। जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की । अंगरेजहु को राज पाइकै रहे कूद के कूढ़ । अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की।। स्वारथपर विभिन्न-मति-भूले हिंदू सब हवै मूढ़ ।। कलह अविद्या मोह मूढ़ता सबै नास के साथ की ।। जग के देस बढ़त बदि बदि के सब बाजी जेहि काल । हमारा सृष्टि संहार कारक भगवान तमोगुण ची से ताहू समय रात इनको है ऐसे ये बेहाल ।। जन्म है । चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्र छोटे चित अति मीरु बुद्धि मन चंचल जिगत उद्याह । जीवन हैं । पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्र, मूखों के उदर-मरन-रत, ईसबिमुख सब मए प्रजा नरनाह ।। मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है। इनसों कछु आस नहिं ये तो सब बिधि बुधि-बल-हीन। हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्र हमारे प्रताप से बेकाम बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन ।। हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप है, एक आध्यात्मिक बोझ लादि के पैर छानि के निज सुख करहु प्रहार । और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अंधेरे ये रासम से कछु नहि कहिहे मानहु छमा अगार ।। के नाम से प्रसिद्ध है । सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने हित अनहित पशु पक्षी जाना पै ये जानहि नाहिं। को मुझे मेरे परम पुज्य मित्र दुदैव महाराज ने आज भूले रहत आपूने रंग मैं फसे मूढ़ता माहिं ।। बुलया है । चलें देखें क्या कहते हैं (आगे बढ़कर) जे न सुनहिं हित, भलो करहिं नहिं तिनसों आसा कौन। महाराज की जय हो, कहिए, क्या अनुमति है ? डका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन ।। - आओ मित्र ! तुम्हारे बिना तो सब सूना था । यद्यपि मैने अपने बहुत से लोग भारतविजय (जवनिका गिरती है) को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं । मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहां जाना भारतेन्दु समग्र ४६६