पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५५९

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पाँचवा दृश्य जाऊंगा। तुम युवा मनुष्यों की भांति वस्त्र इत्यादि पहिन कर जसोदा-मेरी आसीस है कि आपका आंतरिक | चुटकुले स्मरण हैं और इन्हीं में से अपना काम मनोरथ पूरा हो । निकालूंगी । परंतु आओ मैं तुमसे अपना सब उपाय पुरश्री-- मैं तुम्हारी इस अभिलाष का धन्यवाद गाड़ी में जो बगीचे के फाटक पर खड़ी है सवार होकर देती हूँ और तुम्हारे विषय भी वैसा ही जी से चाहती हूँ। वर्णन करूँगी । बस अब शीघ्र ही चलो क्योंकि हमें जसोदा मेरा राम राम लो । आज ही बीस मील समाप्त करना है। (जसोदा और लवंग जाते हैं) (दोनों जाती हैं) हाँ बालेसर जैसा कि मैंने तुम्हें सदा सच्चा और धार्मिक पाया है वैसा ही मैं चाहती हूँ कि अब भी पाऊँ । इस पत्र को लो और जहाँ तक कि तुम्हारे पाँव में बला हो शीघ्र पाँडुपुर पहुँचने का प्रयत्न करो और इसे मेरे चचेरे भाई कविराज बलवंत के हाथ में दो और देखो कि जो पत्र ओर वस्त्र वह तुम्हें दें उन्हें ईश्वर के वास्ते स्थान- बिल्वमठ-एक उद्यान मन से अधिक तीव्र उस घाट पर जहाँ से वंशनगर को व्यापार का माल जाता है, लेकर आओ । बस अब (गोप और जसोदा आते हैं) चले जाओ, बातों में समय नष्ट न करो । मैं तुमसे गोप- हाँ बेशक - तुम जानती हो कि पिता पहिले वहाँ पहुँच जाऊँगी । के पापों का दंड उसके बच्चों को भोगना पड़ता है बालेसर- बबुई में जितना शीघ्र संभव होगा | इसलिये मैं सच कहता हूँ कि मुझे तुम्हारा अमंगल दृष्टि आता है । मैंने तुमसे छलावल की बात आज तक पुरनी-- इधर आओ नरश्री मुझे अभी वह काम नहीं की ओर अब भी तुमसे अपना विचार स्पष्ट कह करना है जो तुम्हें अभी विदित नहीं है । हम तुम चल दिया । नेक अपने मन को प्रसन्न रक्खो क्योंकि मेरी कर अपने स्वामी को देखेंगे और उनको इसका ध्यान सम्मति में तो तुम अपराधनस्त हो चुकीं । हाँ एक भी न होगा। उपाय तुम्हारे कल्याण का दृष्टि आता है सो उसकी भी नरश्री-- हमें भी वह देखेंगे यह नहीं ? आशा कुछ ऐसी वैसी है। - हाँ हाँ परंतु ऐसे भेस में कि उन्हें जसोदा- वह कौन सा उपाय है नेक बताना ध्यान न होगा कि वे वीरता के चिन्ह जो स्त्रियों में नहीं तो? होते हम में उपस्थित हैं । मैं प्रण करती हूँ कि जब हन भाई ! तुम यह समझो कि तुम अपने पिता से उत्पन्न नहीं हो अर्थात तुम जैन की कन्या नहीं तैयार हो जायगे. उस समय मैं तुमसे बढ़कर सजीली | हो । जान पडेंगी और अपनी तलवार को खूब तिरछी बाँध जसोदा-तौ तो सचमुच यह आशा ऐसी ही कर चलूंगी और बालक और युवा के शब्द के बीच का वैसी है क्योंकि ऐसा करने में मुझे अपनी माता के भारी शब्द बनाकर बोलूंगी और स्त्रियों की मंदगति | अपराधों का दंड मिलेगा। छोड़कर पुरुषों की भांति लम्बे पैर रक्तूंगी और एक गोप- हाँ सच तो है, तब तो मुझे भय है कि अभिमानी नवयुवक व्यसनी पुरुष की भाँति युद्ध | तुम अपने माता पिता दोनों के निमित्त दंड पाओगी। इत्यादि का भी वर्णन करूँगी और भूठी बातें गढ़ गढ़ हाय हाय जब मैं तुम्हें उधर अर्थात तुम्हारे पिता से कर कहूँगी कि बड़ी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ मुझपर आसक्त बचाता हूँ तो इधर खाई अर्थात तुम्हारी माता दृष्टि हुई पर मैंने उन्हें ऐसा कोरा उत्तर दिया कि नैराश्य से | आती है । अच्छा तो अब तुम दोनों ओर से गई । पीड़ित होकर मर गई पर मेरा इसमें क्या बस था फिर जसोदा - मैं अपने स्वामी के द्वारा मुक्ति मैं खेद प्रकट करूंगी ओर कहूंगी कि यद्यपि इसमें मुझ पाऊँगी. वह मुझे आर्य धर्म में लाए हैं । पर कुछ दोष नहीं है किंतु यदि वह मेरे इश्क में न गोप-तौ तो प्रधान दोष उन पर है ! हम लोग मरतीं तो उत्तम था और इसी प्रकार के बीसों झूठ ऐसे | पहिले ही से आर्य धर्म के क्या न्यून मनुष्य हैं । परन्तु बोलूंगी कि लोगों को इस बात का पक्का विश्वास हो | अच्छा जितने थे उतनों का किसी भाँति पूरा पड़ जाता जायगा कि मुझे पाठशाला छोड़े साल भर से अधिक न था पर अब नये आर्यो के भरती होने से सूअर का दाम हुआ होगा । मुझे इन अभिमानी छोकरों के सहस्त्रों । बढ़ जायगा । यदि हम सब के सब शूकर भक्षी बन Reetik- दुर्लभ बन्धु ५१५ पुरश्री- गोप--