पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०२

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नाटिका । ९ वीथी। योंही थोड़े थोड़े भेद में और भी शेग उपरूपक होते भाण की भाँति एक अंक में । इसमें दो पुरुष हैं । न तो सबों के भाषा में उदाहरण हैं न इन सबों का आकर बात कर सकते हैं । अपनी वार्ता में विविध भाव काम ही विशेष पड़ता है इससे सविस्तार वर्णन द्वारा किसी का प्रेम वर्णन करेंगे किन्तु हंसाते जायंगे नहीं किया गया। (उदाहरण नहीं)। भरत मुनि ने उपरूपकों के भेद नहीं लिखे हैं । दश १० प्रहसन प्रकार के रूपक लिखकर नाटक के दो भेद और माने हैं हास्यरस का मुख्य खेल । नायक राजा वा धनी वा यथा नाटिका और त्रोटक । 'मल्लिकामारुत' प्रकरण- ब्राह्मण वा धूर्त कोई हो । इसमें अनेक पात्रों का कार दंडी कवि रूपकमात्र को मिश्रकाव्य नाम से समावेश होता है । यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक ही व्यवहृत करते हैं। अंक होना चाहिए किन्तु अब अनेक दृश्य दिये बिना अथ नवीन भेद नहीं लिखे जाते । उदाहरण - हास्यार्णव, वैदिकी आज कल योरोप के नाटकों की छाया पर जो नाटक हिंसा, अन्धेर नगरी। लिखे जाते हैं और बंगदेश में जिस चाल के बहुत से महानाटक । नाटक बन भी चुके हैं वह सब नवीन भेद में परिगणित नाटक के लक्षणों से पूर्ण ग्रंथ यदि दश अंकों में हैं। प्राचीन की अपेक्षा नवीन की परम मुख्यता पूर्ण हो तो उसको महानाटक कहते हैं । बारम्बार दृश्यों के बदलने में है और इसी हेतु एक अंक अथ उपरूपक । में अनेक अनेक गांकों की कल्पना की जाती है उपरूपक के अठारह भेद हैं। यथा नाटिका, क्योंकि इस समय में नाटक के खेलों के साथ विविध नोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थान, दृश्यों का दिखलाना भी आवश्यक समझा गया है । इस उल्लाप्य, काव्य, प्रेखण, रासक, संलापक, श्रीगदित अंक और गर्भाकों की कल्पना यों होनी चाहिए, यथा (श्रीरासिका) शिल्पक, विलासिका, दुमंल्लिका, पाँच वर्ष के आख्यान का एक नाटक है तो उसमें वर्ष प्रकरणिका, हल्लीश ओर भाणिका । वर्ष के इतिहास के एक एक अंक और उस अंक के अंत :पाती विशेष-२ समयों के वर्णन का एक एक नाटिका में चार अंक होते हैं और स्त्री पात्र अधिक होते गांक । अथवा पांच मुख्य घटनाविशिष्ट कोई नाटक हैं तथा नाटिका की नायिका कनिष्ठा होती है अर्थात है तो प्रत्येक घटना के संपूर्ण वर्णन का एक-२ अंक नाटिका के नायक की पूर्व प्रणयनी के वश में रहती है । और भिन्न-भिन्न स्थानों में विशेष घटनांत :पाती छोटी उदाहरण रत्नावली, चन्द्रावली इत्यादि । छोटी घटनाओं के वर्णन में एक एक गर्भाक । ये नवीन त्रोटक । नाटक मुख्य दो भेदों में बंटे हैं -- एक नाटक, दूसरा इसमें सात-आठ नौ या पांच अंक होते हैं। और गीतिरूपक । जिनमें कथा भाग विशेष और गीति न्यून प्राय : प्रति अंक में विदषक होता है । नायक दिव्य हों वह नाटक और जिसमें गीति विशेष हों वह मनुष्य होता है। उदाहरण विक्रमोर्वशी । गीतिरूपक । यह दोनों कथाओं के स्वभाव से अनेक प्रकार के हो जाते हैं किन्तु उनके मुख्य भेद इतने किये नौ या दस साधारण मनुष्य और पांच छ : स्त्री जा सकते हैं यथा -१ संयोगांत - अर्थात प्राचीन जिसमें हों और कैशिकी वृत्ति तथा एक ही अंक हो । नाटकों की भाति जिसकी कथा संयोग पर समाप्त हो । (उदाहरण नहीं)। २ वियोगांत जिसकी कथा अंत में नायिका वा नायक के सट्टक। मरण वा और किसी आपद घटना पर समाप्त हो । जो सब प्राकृत में हो और प्रवेशक विष्कम्भक (उदाहरण 'रणधीर प्रेममोहिनी') ३ मिश्र --अर्थात जिसमें न हों और शेष सब नाटिका की भाति हो वह जिसके अंत में कुछ लोगों का तो प्राणवियोग हो और सट्टक है। उदाहरण कर्पूरमंजरी । कुछ सुख पावें। नाट्यरासक । इन नवीन नाटकों की रचना के मुख्य उद्देश्य ये होते इसमें एक अंक, नायक उदात्त, नायिका हैं यथा -१ श्रृंगार २ हास्य ३ कौतुक ४ समाज बासकसज्जा, पीठमर्द उपनायक, और अनेक प्रकार के संस्कार ५ देशवत्सलता । श्रृंगार और हास्य के गान नृत्य होते हैं। उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, जगत में प्रसिद्ध अथ शेष उपरुपक। है। कौतुकविशिष्ट वह है जिसमें लोगों के PX***

भारतेन्दु समग्र ५५८ गोष्ठी ।