पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०८

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जैसे वीरचरित में सुग्रीव विभीषण अंगद इत्यादि । यथासम्भव वही गुण रहना आवश्यक है । प्रहरान अथ वैषभ्यपात दोष । आदि रूपकविशेष के नायकादि अन्य प्रकार के होते नाटक में अंगी को अवनत कर के अंग का प्राधान्य करने से वैषम्यपात नामक दोष होता है अथ परिच्छद विवेक । अथ अंक लक्षण । नाटकान्तर्गत कौन पात्र कैसा परिच्छद पहिरै यह नाटक के एक एक विभाग को एक एक अंक कहते ग्रन्थकार कर्तृक उल्लिखित नहीं होता न किसी प्राचीन । अंक में वर्णित नायक नायिकादि पात्र का चरित्र नाटककार ने इस का उल्लेख किया है । नाटक में और आचार व्यवहारादि दिखलाया जाता है। किसी स्थान में उत्तम परिच्छद का परिवर्तन दिखलाई अनावश्यक कार्य का उल्लेख नहीं रहता । अंक में पड़ता है । नाटक सत्यहरिश्चन्द्र में 'दरिद्र वेष से अधिक पद्य का समावेश दूषणावह होता है। हरिश्चन्द्र का प्रवेश ।" अथ अंकावयव । ऐसी अवस्था भिन्न स्पष्ट रूप से परिच्छद का नाटक का अवयव बृहत होने से, एक रात्रि में वर्णन किसी स्थान में उल्लिखित नहीं रहता, इस से अभिनय कार्य समाहित नहीं होगा । इस हेतु दश अंक | अभिनय में वेशरचयिता पात्रगण का स्वभाव और से अधिक नाटक निर्माण विधि और युक्ति के विरुद्ध अवस्था विचार करके वेशरचना कर दे । नेपथ्य कार्य है । प्रथम अंक का अवयव जितना होगा द्वितीयांक का सुन्दर रूप से निर्वाह के हेतु एक रसज्ञ वेषविधायक की अवयव तदपेक्षा न्यून होना चाहिये। ऐसे ही क्रम क्रम आवश्यकता रहती है। से अंक का अवयव छोटा कर के ग्रन्थ समाप्त करना अथ देशकाल प्रवाह । अति दीर्घकाल सम्पाद्य घटना सकल नाटक में अथ विरोधक। अल्पकाल के मध्य में वर्णनकरना यद्यपि दूषणावह नाटक में जिन विषयों का वर्णन निषिद्ध है, उन का नहीं है तथापि नाटक में देशगत और कालगन वेलक्षण्य नाम विरोधक है। वर्णन करना अतिशय अनुचित है। उदाहरण । अथ विष्कम्भक । दूरावान, अति विस्तृत युद्ध, राज्य देशादि का नाटक में विषकम्भक रखने का तात्पर्य यह है कि विप्लव, प्रबल वात्या, दन्तच्छेद, नखच्छेद, अश्वादि | नाटकीय वस्तुरचना में जो सब अंश अत्यन्त नीरस बृहत्काय जन्तु का अति वेग से गमन, नौका परिचालन | और आडम्बरात्मक हैं उनके सन्निवेशित होने से और नदी में सन्तारण प्रभृत्ति अघटनीय विषय । सामाजिक लोगों को विरक्ति और अरुचि हो जाती है । अथ नायक निर्वाचन । नाटक प्रणेतृगण इन घटनाओं को पात्र विशेष के मुख से विनय, शीलता, वदान्यता, दक्षता, क्षिप्रता, शौर्य, संक्षेप में विनिर्गत कराते हैं। प्रियभाषिता, लोकरंजकता, वाग्मिता -प्रभुति अथ नाटकरचना प्रणाली । गुणसमूह सम्पन्न सदशसम्भूत युवा को नायक होने का नाटक लिखना आरम्भ करके, जो लोग उद्देश्यवस्तु अधिकार है। नायक की भांति नायिका में भी | परपरा से चमत्कारजनक और मधुर अति वस्तु चाहिये। के एक प्रकार के सघर और द्रव वस्तु में उन को डुबोके छापा किया. तब और भी कुछ उत्तम छपा हुआ मालूम दिया । शेष में उसने शीशा एवं शीशा और रांगा मिले हुए धातु से अक्षर बना के यन्त्र के निमित्त एक स्वतन्त्र स्थान निर्माण किया । इस प्रकार उस काल से ले के अद्य पर्यन्त इस उत्तम मुद्रणविद्या की वृद्धि होती चली आती है । उक्त लौरेस साहिब के पास एक उस का नौकर 'योहनफस्तत' नामक रहता था । उस ने गुप्त भाव से अपने स्वामी की विद्या चुरायी और वहां से आके मेण्डस नामक नगर में, उक्त मुद्रणविद्या का प्रकाश किया । अतएव वह उस देश में उस नूतन विद्या द्वारा विद्वान और मायावी के नाम से स्वय' विख्यात हुआ । भारतवर्षीय उन्नति के समय और उस के बाद जब यूनान और रोम देशीय लोगों की उन्नति का समय आया तो, वहा भी केवल जो धनी और बड़े आदमी होते थे, अथवा अधिक परिश्रम करते थे, वही हस्तलिखित पुस्तकों द्वारा विद्या उपार्जन कर सकते थे, किंतु आज छापे द्वारा विविध विद्याविभूषित पुस्तके सर्वसाधारण कोई सहज ही में प्राप्त हो सकती है, इससे मनुष्य समाज में एक नूतन युक सा आविर्भूत हुआ दिखाई देता है, इस कुछ संदेह नहीं। Okek भारतेन्दु समग्र ५६४