पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४३

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रंगजी ठाकुर का आभूषण एक बार चोर लोग चुरा ले गए थे और उन लोगों को इस दोष से कारागार हुआ था । वे चोर स्वामी से बड़ा द्वेष रखते थे । इस से उन लोगों ने स्वामी के अंगसेवकों को घूस देकर इन के भोजन में विष मिला दिया । किंतु परमेश्वर ने यह सब वृत्त अनुभव द्वारा स्वामी को बतला दिया, इस से उन की रक्षा हुई। यज्ञमूर्ति नामक एक वेदांत का बड़ा भारी संन्यासी पंडित था । वह दिग्विजय करता हुआ रंगनगर में स्वामी से शास्त्रार्थ करने आया । स्वामी ने अठारह दिन पय्यंत उस से शास्त्रार्थ कर के उस को परास्त किया और उस से प्रायश्चित करा के उस को फिर से शिखा सूत्र धारण कराया । देवराज, देवमन्नाथ और मन्नाथ यह तीन नाम उस पंडित के रक्खे गए और वह एक बड़े मठ का स्वामी नियत हुआ । इस पंडित ने ज्ञानसार और प्रमेयसार नामक द्राविड़ भाषा में वेष्णव मत के दो बड़े सुंदर ग्रंथ बनाए हैं। एक समय पुण्यनगर से अनंताचार्य बहुत से वैष्णवों के साथ स्वामी के दर्शन को आए । स्वामी ने उन को वेंकटगिरि की सेवा का अधिकार दिया । तब वे वेंकटगिरि गए और वहाँ वृंदावन बना कर रहने लगे । इन्होंने वेंकटनाथ स्वामी का 'रामानुज" 'लक्ष्मण' इत्यादि नाम रक्खा हैं । स्वामी इस के पश्चात देशाटन करने को निकले और वेंकटगिरि होते हुए उत्तर की यात्रा को चले । मार्ग में दिल्ली में त्रिविक्रमाचाय्य से भेंट किया । वहाँ से बदरीनाथादि होते हुए लौट कर अष्ट सहन गांव में आए । वहाँ वरदाचार्य और यज्ञेश नामक अपने दो शिष्यों को मठाधिपति नियुक्त किया । वहाँ से हस्तगिरि आए और पूर्णाचार्यादि से मिल कर कापिल तीर्थ को गए । वहाँ कुछ दिन तक रहे और देश के राजा बिट्ठलदेव को शिष्य किया । इस राजा बिट्ठलदेव ने तोडीर मंडलादिक अनेक गाँव स्वामी को भेंट किए । वहाँ से वृषाचलादि स्थानों में अपना माहात्म्य प्रकाश करते हुए रंगनगर स्वामी लौट आए । स्वामी के मामा के पुत्र गोविंदपंडित को विराग में ऐसी रुचि हुई कि स्वामी ने बहुत कहा परंतु उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया । तब स्वामी ने उनको संन्यास दिया । एक बार केवल कूरेश को साथ लेकर स्वामी शारदापीठ गए क्योंकि वहाँ बिशिष्टाद्वैत मत का मूल ग्रंथ बौधायन कृत ब्रह्मसूत्र वृत्ति की पुस्तक थी । जिस को देखकर स्वामी को तदनुसार भाष्य बनाना बहुत आवश्यक था । शारदापीठ के सब पंडितों को स्वामी ने शास्त्रार्थ में पराजित किया । जब वहाँ से लौटे तो बौधायन वृत्ति की पुस्तक स्वामी के साथ थी । किंतु शारदापीठ के पंडितों ने द्वेष करके रात को डाँका डाला और वह पुस्तक लूट ले गए । स्वामी को इससे बड़ा दु:ख हुआ । तब कुरेश ने कहा कि आप इतना दु:ख क्यों सहते हैं । एक बार मैंने आद्योपांत उस पुस्तक को देखा है, इससे उसके प्रति अक्षर मुझको कंठान मैं सब आप को लिख दूँगा । तदनुसार एकश्रुतिधर कुरेश ने बौधायन सूत्र वृत्ति सब स्वामी को लिख दी । इसी वृत्ति के अनुसार स्वामी ने वेदात सूत्र पर श्रीभाष्य, वेदांतसार, वेदार्थसंग्रह और गीताभाष्यादि ग्रंथ बनाए । इन ग्रंथों के बनाने के पीछे बहुत से शिष्यों को साथ लेकर स्वामी दिग्विजय करने निकले । क्रम से चोलमंडल, पांड्यमंडल, कुरुक इत्यादि देशों में जाकर वहाँ के पंडितों को शास्त्रार्थ में जीत कर उनको वैष्णव धर्म से दीक्षित किया और कुरग देश के राजा को दीक्षित करके केरल देश के पंडितों को जीता । वहाँ से क्रम से द्वारिका, मथुरा. शालिग्राम, काशी, अयोध्या, बदरिकाश्रम, नैमिषारण्ध और श्रीवृंदावन आदि तीर्थों में होते हुए फिर से शारदापीठ गए । वहाँ सरस्वती ने प्रत्यक्ष होकर "कप्यास्य इस श्रुति का तात्पर्य पूछा । स्वामी ने जो अर्थ कहा इस से प्रसन्न होकर सरस्वती ने श्री भाष्य अपने सिर पर चढा कर स्वामी को दिया और उन का दोनों हाथ पकड़ कर "भाष्यकार" नाम से पुकारा । इस के अनंतर स्वामी ने वहाँ के पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित करके पुरुषोत्तम क्षेत्र गमन किया । वहाँ जाकर देखा कि बौद्ध और कापालिक लोग पुरुषोत्तम की सेवा में नियुक्त हैं । स्वामी ने उन को जीतकर वैष्णवगण को सेवा में नियुक्त किया और वहाँ रामानुज मठ बना कर रहने लगे । १. दो. कहहिं एक अद्वैत, दुतिय द्वैत मत जान । त्रितिय विशिष्टाद्वैत है, ता मधि तीन प्रमान ।।१।। प्रगट लोक मत लोक मैं, दुतिय वेदमत जान । तृतिय संतमत करत जिहि, हरिजन अधिक प्रमान ।।२।। चरितावली ५९९