पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६४६

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को में और काशी, करुक्षेत्र काश्मीर इत्यादि उत्तर में थे जहाँ वैदिक मत के लोग रहते थे और यज्ञ योगादिक सब अपने कर्म करते थे। जब इस प्रकार से बौद्धमत भारतवर्ष में फैल गया, ईश्वर ने सोचा कि अब वैदिक मत डूबने पर है, जो इस की सहायता न करेंगे तो इस का चलना कठिन है । द्रविण देश में जो अब मंदराज हाते में है चिदंबरपुर में द्राविण ब्राहमण के कुल में सर्वत्र नामक तपस्वी का जन्म हुआ । उस की स्त्री का नाम कामाक्षी था और वे दोनों चिदंबरेश्वर की, जो आकाशलिंग कर के दक्षिण देश में प्रसिद्ध है, सेवा करने लगे । और एक कन्या उन को हुई उस का नाम विशिष्टा रक्खा । आठवें वर्ष उस कन्या का विवाह विश्वजित ब्राहमण से कर दिया और वह विशिष्टा भी सर्व काल अपने मा बाप के सदृश उसी महादेव की सेवा करती थी । उस का पति विश्वजित उस को छोड़ कर जंगल में तप करने को गया, परंतु विशिष्टा ने महादेव की सेवा नहीं त्यागी । ईश्वर उस से प्रसन्न हुआ और उस को एक लड़का उत्पन्न हुआ, जिसका नाम शंकराचार्य रक्खा । पुराण और तंत्रों में शंकराचार्य को शिव का अवतार लिखा है और इन के प्रतिवादी वैष्णव लोग भी इन को शिव का अवतार होने में कुछ विवाद नहीं करते । इन की उत्पत्ति का समय अभी ठीक ठीक नहीं ज्ञात हुआ परंतु शिष्य परंपरा से जो आचार्य के अनंतर अभी तक चली आती है, जान पड़ता है कि कुछ न्यूनाधिक एक हजार वर्ष हुए । डाक्तर डाकवेल साहब अपने ग्रंथों में ९०० वर्ष लिखते हैं, और पण्डित जयनारायण तर्क-पञ्चानन १२०० वर्ष के निकट अनुमान करते हैं। उस नगर के निवासी ब्राहमणों ने इनके जात कर्मादिक संस्कार किये और तीसरे वर्ष में चौल और पांचवें में यज्ञोपवीत किया । तब से श्रीशंकराचार्य जी ने आठवें वर्ष तक सकल विद्या का पूर्ण अभ्यास किया और सब विद्या में पारंगत हुए और शिष्यों को भी विद्या सिखलाई । आठवें वर्ष में श्रीगोविंद योगींद्र के उपदेश से संन्यासाश्रम स्वीकार किया और इनके मुख्य शिष्य बारह थे, जिनके नाम पद्मपाद, हस्तामलक, समित्पाणि, चिदिलास, ज्ञानकन्द, विष्णुगुप्त, शुद्धकीर्ति, भानुमरीचि, कृष्णदर्शन, बुद्धिवृद्धि, विरंचपाद, अनन्तानन्दगिरि थे । इनके समय में पचास से अबिक मत प्रचलित थे, उनमें जो जो कुछ मुख्य मत थे उनके नाम ये हैं । शैव, वैष्णव, सौर, गाणपत्य, शाक्त, कापालिक, कौल, पांचरात्र, भागवत्, बौद्ध, जैन, चार्वाक इत्यादि । इन सब मतवालों के आचार्यों को उन्होंने शास्त्रार्थ में जीत लिया और उन सब को अपना शिष्य किया । तब आचार्य जी काशी में गये और मध्यान्ह के समय माणिकर्णिका स्नान करते थे, इतने में श्रीव्यास जी बूढे ब्राहमण का भेष लेकर वहाँ आये और शंकाराचार्य से पूछा कि मैंने सुना है कि आपने ब्रह्मसूत्र में बहुत परिश्रम किया है । आचार्य ने उत्तर दिया, हाँ, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ पूछो । व्यास जी ने एक स्थल में पूछा, आचार्य जी ने उसका यथार्थ उत्तर दिया । इस पर व्यास जी फिर कुछ विवाद करने लगे । आचार्य जी को क्रोध आया और अपने पद्मपाद नामक शिष्य से कहा कि इस बूढ़े ब्राहमण को बाहर निकाल दो. तब शिष्य ने यह श्लोक पढ़ा । शंकर: शंकर साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम्। तयोर्विवादे सम्प्राप्ते किकरिष्यति। किंकरः उल्था-राजा स्कन्दगुप्त जिस के प्रस्थान के समय अर्थात् जब वह अपने मन्दिर से बाहर निकलता था सैकड़ों राजाओं के सिर के मुकुट उस के चरणों पर मुकते थे । बड़ा यशस्वी और प्रचुर रत्न से युक्त था । उस के स्वर्ग वास करने से ३२१ वर्ष के अनन्तर ज्येष्ठ महीने में राजा सोमिल का बेटा मट्टिसोम, उस का बेटा रुद्रसोम, जिस का व्याघ्र भी नाम है, उस का बेटा मद्रसोम, जिस की भक्ति ब्राह्मण गुरु और सन्यासियों में अधिक थी, जगत का संसकरण अर्थात दिन दिन नाश अवलोकन करके बहुत भययुक्त हुआ । और उस से अपनी और अपनी प्रजा की रक्षा के लिये ककुम ग्राम में जिस को अब कहाँव कहते है और जिस में साधु जन अधिक बसते थे, जिन के रहने से वह पवित्र गिना जाता था, एक यज्ञ किया । उस यज्ञ में पांच इंद्र पहाड़ों के बराबर अर्थात पाँच स्तंभ पर इंद्र की मूतिर्त बना कर स्थापित की । वह (१) कहांव में (२) भागलपुर में (३) सारण में (४) बेतिया के राज्य में (५) तराई में अब भी कई फुट के लंबे गड़े हुये खड़े मौजूद है और उन के सिवाय एक और स्तंभ स्थापन किया, जो उस की कीर्ति को प्रकाश करता है। भारतेन्दु समग्र ६०२