पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६५९

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८. सूरदास जी दो. हरि पद पंकज मत्त अलि, कविता रस भरपूर। दिव्य चक्षु कवि-कुल-कमल, सूर नौमि श्री सूर ॥ सब कवियों के वृत्तांत में सूरदास जी का वृत्तात पहिले लिखने के योग्य है, क्यों कि यह सब कवियों के शिरोमणि है और कविता इनकी सब भांति की मिलती है । कठिन से कठिन और सहज से सहज इनके पद बने है और किसी कवि में यह बात नहीं पाई जाती । और कवियों की कविता में एक बात अच्छी है और कविता एक ढंग पर बनती है परंतु इन की कविता में सब बात अच्छी है और इनकी कविता सब तरह की होती है, जैसे किसी ने शाहनशाह अकबर के दरबार में कहा था दो.-- उत्तम पद कवि गंग को, कविता को बल वीर। केशव अर्थ गंभीर को, सूर तीन गुन धीर ।। और इस के सिवाय इनकी कविता में एक असर ऐसा होता है कि जी में जगह करै । जैसे एक वार्ता है कि किसी समय में एक कवि कहीं जाता था और एक मनुष्य बहुत व्याकुल पड़ा था । उस मनुष्य को अति व्याकुल देखकर उस कवि ने एक दोहा पद्म । दो.- किधौ सूर को सर लग्यो, किधौ सुर की पीर। किधौ सूर को पद सुन्यौ, जौ अस विकल शरीर ॥ इस वार्ता के लिखने का यह अभिप्राय है कि निस्संदेह इन के पदों में ऐसा एक असर होता कि जो लोग कविता समझते हैं उनके जी पर इस की चोट लगे । चे जाति के ब्राह्मण थे और इनके पिता का नाम बाबा रामदास जी था, जो गाना बहुत अच्छा जानते थे और कुछ धुरवपद इत्यादि भी बनाते थे और देहली या अगरे या मथुरा इन्हीं शहरों में रहा करते थे और उस समय के नामी गुनियो में गिने जाते थे । उन के घर यह सूरदास जी पैदा हुए । यह इस असार संसार के प्रपंच को न देखने के वास्ते आँख बंद किए हुए थे। इन के पिता ने इन को गाना सिखाने में बड़ा परिश्रम किया था और इन की बुद्धि पहिले ही से बड़ी विलक्षण और तीव्र थी । संवत् १५४० के कुछ न्यूनाधिक में इनका जन्म हुआ था और आगरे में इन्होंने कुछ फारसी विद्या भी सीखी थी । इनकी जवानी ही में इनके पिता का परलोक हुआ और यह अपने मन के हो गए और भजन तभी से बनाने लगे । उस समय में इनके शिष्य भी बहुत से हो गए थे और तब अपना नाम पदों में सूर स्वामी रखते थे । उन्हीं दिनों में इनने महाराज नल और दमयंती के प्रम की कथा में एक पुस्तक बनाई थी, जो अब नहीं मिलती । उस समय इनकी पूर्ण युवा अवस्था थी । और उन दिनों में ये आगर से नौ कोस मथुरा के रास्ते के बीच में एक स्थान जिस का नाम गऊघाट है. वहीं रहते थे और बहुत से इनके शिष्य इनके साथ थे । फिर ये आचार्य-कुल-शिरोरत्न श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु के शिष्य हुए । तब से यह अपना नाम पदों में सूरदास रखने लगे। ये भजनों में नाम अपना चार तरह से रखते -- सूर, सूरदास, सूरजदास. और सूरश्याम । जब यह सेवक हुए थे तब इन्होंने यह भजन बनाया था । भजन चकई री चलि चरन-सरोवर, जहँ नहि प्रेम-वियोग। जहँ भ्रम-निसा होत नहिं कबहूँ सो सागर सुख जोग ॥१॥ सनक से हंस मीन शिव-मुनि-जन नख-रवि-प्रभा-प्रकाश । प्रफुलित कमल निमेषन ससि डर गुंजत निगम सुबास ॥२॥ जेहि सर सुभग मुक्ति-मुक्ताफल सुकृत बिमल जल पीजै। सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम इहाँ कहा रहि कीजै ॥३॥ जहँ श्री सहस सहित नित क्रीड़त सोभित ' सूरज दास'। अब न सुहाइ बिषै रस छीलर वा समुद्र की आस ॥४॥ फिर तो इन की सामर्थ्य बढ़ती ही गई और इन्होंने श्री मद्भागवत को भी पदों में बनाया, और भी सब तरह के मजन इन्होंने बनाए । इनके श्रीगुरू इनको सागर कहकर पुकारते थे, इसी से इन ने अपने चरितावली ६१५