पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७५

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CO ललितादि ठाढ़ी अनुचरी ढिग रूप की सो जाल । दोऊ. बह दिन ग्रीसम तप्यो सखी री सब तन-ताप नमैहै । इक करत आरति इक निछावरि करत मनिगन छोरि । ऐ हैं ग यक के बादर चिलिहें सीतल पौन । इक आइ राई लोन वारत इक रहत तृन तोरि । कोइलि कुहुकि कुहुकि बोलैगी बैठि कुंज के भौन । इक भौंर निरवारत खरी इक रहत भूखन जोरि । बोलेंगे पपिहा पिउ पिउ बन अरु बोलेंगे मोर । इक बूंद आडत आइ इक पद पोंछि रहत निहोरि । दोऊ. | 'हरीचंद' यह रितु-छबि लखि के आनंद-सागर बढ़ो ताको कहूँ वार न पार । मिलिहैं नंदकिसोर ।२८ इबे करम कुल ज्ञान नेम विवेक काम-विकार । सखी री कछु तो तपन जुड़ानी । पायो न क्यौहूँ थाह शिव शुक रहे हारि बिचार । जब सों सीरी पवन चली है तब सों कछु मन-मानी । 'हरीचंद' तेहि अवगाह किय बल्लभ-कृपा-आधार ।२३ | कङ् रितु बदलि गई आली री मनु बरसैगो पानी । सखी लखि यह रितु बन की शोभा । 'हरीचंद' नभ दौरन लागे बरसा के अंगवानी ।२९ कहकत कंज कंज में कोकिल लाख के सब मन लोभा। भोजन कीजै प्रान-पिआरी । नए नए वृक्ष नए नए पल्लव नए नए सब गोभा । भइ बड़ी बार हिंडोले झूलत आज भयो श्रम भारी । नए नए पात फूल फल नए नए देत हिये में चोभा । बिंजन मीठे दूध सुहातो लीजै भानु-दुलारी । सीतल चहत समीर सुहायो लेत सुगंध झकोर । स्यामा-स्याम-चरन-कमलन पर तैसोइ सुख घन उमड़ि रह्यौ है जमुना जूलेत हलोर । 'हरीचंद' बलिहारी ।३० नाचत मोर सोर चहुँ ओरन गुंजत अलि बहु भाति । एरी आजु झूलै छै जी श्याम हिंडोरें। बोलत चातक सुक पिक चहुँ दिसि लाख के घन की पति । बृन्दाबन री सघन कंज में जमना जी लेती हलोरें । हरी हरी भूमि भरी सोभा सों देखत ही बनि आवै । सँग धारे बृषभानु-नंदिनी सोहै छे रंग गोरे । 'हरीचंद' जीवन-धन वारी मुख लखती चित चोरे ।३१ जहँ राधा अरू माधव बिहरत कुंजन छिपिछिपि जावै। वह सौदामिनि वह स्यामल घन बूंदा-बिपिन-बिहारी । आजु फूली साँझ तैसी ही फूली राधा प्यारी । जुगल चरन कमलन के नख पै 'हरीचंद' लिहारी ।२४ तैसी ही जमुना फूली, भौरन की भीर भूली, आजु ब्रज-बधू फूली फूलन के साज सजि. तैसी ही समय भयो तैसी ही फूली फुलवारी । प्यारी को झुलावत फूल के हिंडोरे । तैसे ही मोटा बढ़े, अति ही अनंद मढ़े, फूली ब्रज भूमि सब द्रुम लता रहे फूल, तैसोई अड़ानो राग गावै सुकुँवारी । तैसोई पवन बहै फूल के झकोरै । तैसोई बूंदाबन, तैसोई आनंद मन, तैसोही, फली सखी एक आई सांवर सलोने गात, मोहन बने 'हरीचंद' तहाँ बलिहारी ।३२ फूली प्यारी कंठ लगी प्रेम के हलोरें । कहूँ मोर बोले री धन को गरज सुनि 'हरीचंद' बलिहारी फूलि फूल जात वारी, दामिनी दमकै छतिया धरके । संगम गुन गावत सुर थोरें ।२५ पिय बिन बिकल अकेली तड़y बिरह-अगिनि उठि भरकै । परज वह सुख की रतियाँ नहिं भूलै सखी री मोरा बोलन लागे। सोई बात जिय करके। मनु पावस को टेरि बोलावत तासों आंत अनुरागे । 'हरीचंद' पिय से कैसे मिलूं छतियाँ सों किधौं स्याम घन देखि देखि कै नाचि रहे मद पागै । बिरह बोझ मेरे सरकै ।३३ 'हरीचंद' बृजचंद पिया तुम आइ मिली बड़-भागे ।२६ चौखडा देखि सखि चंदा उदय भयो । हिंडोरे कबहूँ प्रगट लखात कबहुँ बदरी को ओट भयो । झूलन कंज कुटीर । हिंडोरे करत प्रकास कबहुँ कुंजन में छन छन छिप छिप जाय। राधा औ बलबीर ।। हिंडोरे सब गोपिन की भीर । मनु प्यारी मुख-चंद देखि के बूंघट करत लजाय । हिंडोरे कालिंदी के तीर । अहो अलौकिक वह रितु-सोभा कछ बरनी नहि जात । हरीचंद' हरि सों मिलिबे को मन मेरो ललचात ।२७ कालिंदी के तीर गहबर कंज रच्यो है हिंडोर । सखी अब आनंद को रितु ऐहै । नव द्रुम लतन मैं ग्रंथि दै दे फूल हैं चहुँ ओर ।। DA प्रमानु वर्णण ३५