पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७८

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w 1 तुर्माह तौ पार्श्वनाथ हो प्यारे । जिनसों कछु नातो नहि तोसो तिनके का पतियारे तलपन लागैं प्रान बगल तें छिनहु होहु जो न्यारे । कागज अक्षर शब्द अर्थ हिय धारण मुख उच्चार । तुमसों और पास नहिं कोऊ मानहु करि पतियारे । इन सों बढ़ि जा मैं कछु नाही ते पावहि क्यों पार । 'हरीचंद' खोजत तुमहीं को बेद पुरान पुकारे ३ तेरी महिमा अमित इते हैं गिनती की सब बात । अहो तुम बहु बिधि रूप धरो 'हरीचंद' बपुरै कहिहैं का यह नहिं मोहि लखात । जब जब जैसो काम पर तब तैसो भेख करो। युक्ति सों हरि सों का संबंध ? कहुँ ईश्वर कहुँ बनत अनीश्वर नाम अनेक परो । बिना बात ही तरक करें क्यों चारहु दृग के अंध । सत पंथहि प्रगटावन कारन लै सरूप बिचरो । युक्तिन को परमान कहा है ये कबहूँ बढ़ि जात । जैन धरम में प्रगट कियो तुम दया धर्म सगरो । जाकी बात फुरै सों जीते यामें कहा लखात । 'हरीचंद' तुमको बिनु पाए लरि लरि जगत मरो ।४ अगम अगोचर रूपहि मूरख युक्तिन में क्यों साने । बात कोउ मूरख की यह मानो । 'हरीचंद' कोउ सुनत न मेरी करत जोई मन माने ।१० हाथी मारै तौह्र नाहीं जिन-मदिर में जानो । जो पै गरेन मैं हरि होते । जग में तेरे बिना और है दूजो कौन ठिकानो । तौफिर श्रम करिके उनके मिलिबे हित क्यों सब रोते । जहाँ लखो तहँ रूप तुम्हारो नैनन माहिं समानो । घर-घर मैं नर नारिन मैं नित उठिकै झगगे होत । एक प्रेम है एकहि प्रन है हमरो एकहि बानो । वहाँ क्यों न हरि प्रगट होत हैं भव-वारिधि के पोत । 'हरीचंद' तब जग में दूजो भाव कहाँ प्रगटानो ।५ पसुगन मैं पच्छिन मैं नितही कलह होत है भारी । नाहिं ईश्वरता अँटकी बेद में । तो क्यों नहिं तहँ प्रगट होत है आसुहि गिरवरधारी । तुम तो अगम अनादि अगोचर सों कैसे मत-भेद में । झगड़हु मैं कछु पूंछ लगी है याहि होत का बार । तुम्हरी अनित अपार अहै गति जाको वार न पारो । तनिक बात मैं झगरि मरत हैं जग के फोरि कपार । ताको इति करि गाइ सके क्यों बहुरो बेद बिचारो । रे पंडितो करत झगरो क्यों चुप ह्वै बैठा भौन । बेद लिखी ही होय तुम्हारी जो पै महिमा स्वामी । 'हरीचंद' याही मैं मिलिहैं प्यारे राधा-रौन ।११ तौ परिमिति गुन भए तिहारे नेति नेति के नामी । खंडन जग मैं काको कीजै । बेद-मारगहि वारो प्यारे जो इक तुमको पावै । सब मत तो अपने ही हैं इनको कहा उत्तर दीजै । तौ जग स्वामी जग-जीवन क्यों तुमरो नाम कहावै । तासों बाहर होइ कोऊ जब तब कछु भेद बतावै । जो तुव पद-रज-अंजन नैनन लागै तौ यह सूझै । याँ तो वही सबै मत ताके तहँ दुजो क्यों आवै । 'हरीचंद' बिनु नाथ-कृपा क्यों यह अभेद गति बुम ।६ अपुने ही पै क्रोधि बावरे अपुनो का, अंग । 'हरीचंद' ऐसे मतवारेन को कहा कीजै संग ।१२ जैन को नास्तिक भाखै कौन ? परम धरम जो दया अहिंसा सोई आचरत जौन । पियारो पैये केवल प्रेम में । सत कर्मन को फल नित मानत अति बिबेक के भौन । नाहि ज्ञान मैं नाहिं ध्यान में नाहि करम-कुल-नेम मैं। तिन के मतहि बिरुद्ध कहत जो महा मूढ़ है तौन । नहिं भारत मैं नहिं रामायन नहिं मनु मैं नहि बेद मैं । नहि झगरे मैं नाहिं युक्त्ति मैं नाहिं मतन के भेद मैं । सब पहुँचत एक हि थल चाही करौ जौन पथ गौन । इन आँखिन सो तो सब ही थल सूझत गोपी-रौन । नहिं मंदिर मैं नहिं पूजा मैं नहिं घंटा की घोर मैं । कौन ठाम जहँ प्यारे नाहीं भूमि अनल जल पौन । 'हरीचंद' वह बाँध्यो डोलत एक प्रीति के डोर मै ।१३ 'हरीचंद' ए मतवारे तुम रहत न क्यों गहि मौन ।७ धरम सब अटक्यो याही बीच । पियारे तुव गति अगम अपार । अपुनी आपु प्रसंसा करनी दुजेन कहनो नीच । यामें खोले जीह जौन सो मुरख कर गवार । यहै बात सबने सीखी है का बैदिक का जैन तेरे हित बकनो बिन बातहि ठानि अनेकन रार । अपनी-अपनी ओर खींचनो एक लैन नहिं दैन । यासों बद्रिके और जगत नहिं मूरखता-व्यवहार । आग्रह भो सबन के तन मैं तासौं तत्व न पावै । कहँ मन बुद्धि बेद अरु जिह्वा कहँ महिमा-बिस्तार । 'हरीचंद' उलटी की पुलटी अपुनी रुचि सों गावें ।१४ 'हरीचंद' बिनु मौन भए नहिं और उपाय बिचार ।८ जै जै पदमावति महारानी । कहाँ लो बकिहें बेद बिचारे । सब देविन मैं तुमरी मूरति हम कहँ प्रगट लखानी 1 भारतेन्दु समग्र ३८