पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७९

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तुमहि लच्छमी काली तारा दुरगा शिवा भवानी । तुमको तो नारी के देखत अंग गुदगुदी आवै । 'हरीचंद' हमको तो नैनन दूजी कहुँ न दिखानी ।१५ | तुमसों कहा संबंध ब्रह्म सों क्यों छाँटत ही ज्ञान । कत है बहरूपिया हमारो । 'हरीचंद' मनमथ जागैगो तबै पड़ेगी जान ।२२ ठगन फिरत है भेस बाल जग आप रहत है न्यारो । जो पै सबै ब्रह्म ही होय । बूढ़ो-ज्वान-जती-जोगिन को स्वाँग अनेकन लावै । तो तुम जोरु जननी मानौ एक भाव सों दोय । कबहूँ हिंदू जैन कबहुँ अरु कबहुँ तुरुक बनि आवै । ब्रह्मम ब्रह्मा कहि काज न सरनो वृथा मरौ क्यों रोय । भरमत वाके भेदन मैं सब भूले धोखा खात । 'हरीचंद' इन बातन सों नहिं ब्रह्महि पैहो कोय ।२३ 'हरीचंद' जानत नहिं एकै ह्वै बहुरूप लखात ।१६. जो पै ईश्वर साँचो जान । लगाओ चसमा सबै सफेद । तौ क्यों जग को सगरे मूरख भूठो करत बखान । तब सब ज्यों का त्यों सूझैगो जैसो जाको भेद । जो करता साँचो है तो सब कारजह है साँच । हरो लाल पीरो अरु लीलो जो जो रंग लगायो । जो झूठो है ईश्वर तो सब जगह जानौ कांच । सोइ सोइ रंग सबै कछ सूझत वासों तत्व न पायो । जो हरि एक अहै तो माया यह दूजी है कौन । आग्रह छोड़ि सबै मिलि खोजह तब वह रूप लखैहैं । 'हरीचंद' कछु भेद मिल्यौ न बक्यौ जिय आयो जौन ।२४ 'हरीचंद' जो भेद भूलिहै सोई पिय को पैहै।१७ कही रे इक-मत वै मतवारो। कहो अद्वैत कहाँ सो आयो । क्यों इतनो पाखंड रचि रहे बिनु पाए पिय प्यारो । हमैं छोड़ि दूजो है को जेहिं सब थल पिया लखायो । कहा समझयो, सिद्धांत कहा कियो, का परिनाम निकारो। बिनु बैसो चित पाएँ झूठो यह क्यौं जाल बनायो । कैसे मान्यौ केहि मान्यौ क्यों कौन उपाय बिचारो । 'हरीचंद' बिनु परम प्रेम के यह अभेद नहिं पायो ।१८ सब कीन्हों पै सिद्ध कहा भयो तप करि क्यौं तन जारो । यह पहिले ही समुझि लियो । 'हरीचंद' जो परम सुलभ पथ तापै कंटक डारो ।२५ हम हिंदू हिंद के बेटा हिंदुहि को पय पान कियो । भये सब मतवारे मतवारे । तब तोहि तत्व सूझिहै कह लौं अपुनो अपुनो मत लै-लै सब झगरत ज्यौं भठिहारे । पहिलेहि सो बनि आपु रहे । कोउ कछु कहत ताहि कोउ दूजो खंडत निज हठ धारे । जनम करम मैं हारहि मानिकै खोए जे जग-तत्व लहे। कह झगड़े ही मैं तेहि मान्यौ पागल भए बिचारे । मेर मग काह के भूने अपनो ह ह भुगात नहीं । आपुस में पहिले सब मिलि निश्चै करि होईन न्यारे । 'हरीचंद' जो यह गति है 'हरीचंद' आयो तो भाब जामें मिलैं पियारे ।२६ तो फिर वह नहीं दिखाय कहीं । १९ मत को नाहीं अर्थ अहै। इतनोही तो फरक रह्यो । तो सब कोई मत मत कहिकै फिर क्यों कछ कहै । हमरो हमरो कहत सबै जग हम ही हम काहुन कस्यौ। इन बातन में जानि परे नहिं सब कोउ कहा लहै । जौ हम हम भाई तो जग में और दिखाई कौन परै । 'हरीचंद' चुप ह्वै सगरो जग यामैं क्यों न रहै ।२७ 'हरीचंद' यह भेद मिटावै तबै तत्व जिय मैं उछरै ।२० नहि इन झगड़न मैं कछ सार । क्यौं नार नरिक मरी बावर वादन फोरि कपार । चहिए इन बातन को प्रेम । कोरो 'हम' सो काम चलै नहिं मरो बृथा करि नेम । कोइ पायौ के नुमही पैहो सो भाखी निरधार । जब लौं मूरति प्राननाथ की आँखिन मैं न समाय । 'हरीचद' इन सब झगड़न सों बारह है यह यार ।२८ तब लौ सब थल प्रीतम प्यारो कैसे सबहि लखाय । अरे क्यों घर घर भटकत डोलौ । 'अहं ब्रह्म' सब मन भाखे ज्ञान गरूर बढ़ाय । कहा धर्यो तेहि कहूँ पाइहौ क्यों बिन बातन छोलौ । तनिक चोट के लगे उठत हैं रोइ रोइ करि हाय । क्यों इन थोथिन पोथिन ले के बिना बात ही बोलौ । जो तुम ब्रहम चोट केहि लागी रोइ तजौ क्यों प्रान । 'हरीचंद' चुप हो घर बैठो यामै जीभ न खोलौ ।२९ 'हरीचंद' हाँसी नाहीं है करनो ज्ञान-विधान ।२१ | खराबी देखहु हो भगवान की । शिवोह" भाखत सब ही लोग । कहाँ कहाँ भटकत डोलत है सुधि न ताहि कछु प्रान की। कह शिव कहँ तुम कीट अन्न के यह कैसो संजोग । तीन ताग मैं कहुँ अँटक्यौ कहुँ वेदन मैं यह डोले । अरध अंग मैं पारवती हु शिर्वाह न काम जगावै । कहुँ पानी मैं कहुँ उपवासन मैं कहुँ स्वाहा मैं बोले TEAK 'जैन कौतूहल ३९