पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८०७

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सुलेमान शाह ने काबुल दखल कर लिया है, यह सुन कर वैरम अकबर को ले कर पंजाब के मार्ग से काबुल गया। इधर हे बनिया ने तीस हजार सैन्य ले कर दिल्ली और आगरा जीत लिया और पंजाब की और अकबर के जीतने को आगे बढ़ । बैरम खाँ ने यह सुन कर शीघ्र ही दिल्ली को बाग मोड़ी और पानीपत में है से घोर युद्ध हुआ, जिस में हेमूं मारा गया और बैरम की जीत हुई । इस जय से बैरम को इतना गर्व हो गया कि वह अकबर को तुच्छ समझने लगा । परिणामदर्शी अकबर उस की यह चाल देखकर बहाने से निकल कर दिल्ली चला आया और वहाँ (१५६०) यह इश्तिहार जारी किया की सल्तनत का सब काम उस ने अपने हाथ में ले लिया है। बैरम इस बात से खसिया कर बागी हुआ, किंतु बादशाही फौज से हार कर बादशाह की शरण में आया । अकबर ने उस के सब अपराध क्षमा किए और भारी पिनशन नियत कर दी। किंतु बैरम को उसी वर्ष मक्का जाती समय मार्ग में एक पठान ने ब्याह किया । मत का आग्रह छोड़ दिया । यहाँ तक कि कई हिंदुओं के तोड़े हुए मंदिर इसने फिर से बनवा दिए । लखनऊ, जौनपुर, ग्वालियर, अजमेर इत्यादि इस के राज्य के आरंभ ही में इस के आधीन हो गए थे। १५६१ में मालवा भी, जो अब तक राजा बाजबहादुर के अधिकार में था, इस के सेनापति ने जीत लिया । राजा के पहले ही पकड़े जाने पर उसकी रानी दुर्गावती बड़ी शूरता से लड़ी। दो बेर बादशाही फौज को इसने भगा दिया, किंतु तीसरी लड़ाई में जब हार गई तो आत्मघात कर के मर गई । इस पवित्र स्त्री का चरित्र अब तक बुंदेलखंड में गाया जाता है । अकबर ने बाजबहादुर को अपना निज मुसाहिब बना कर अपने पास रक्खा । १५६८ में अकबर ने चित्तौर का किला घेरा । राणा उदयसिंह पहाड़ों में चले गए. किंतु उन के परम प्रसिद्ध वीर जयमल्ल नामक सेनाध्यक्ष ने दुर्ग की बड़ी सावधानी से रक्षा किया । एक रात जयमल्ल किले के बुवों की मरम्मत करा रहा था कि अकबर ने दूरबीन से देख कर गोली का ऐसा निशाना मारा कि जयमल्ल गिर पड़ा । इस सैनाध्यक्ष के मरने से क्षत्री लोग ऐसे उदास हुए कि सब बाहर निकल आए । स्त्रियाँ चिता पर जल गई और पुरुष मात्र लड़कर वीर गति को गए । उस युद्ध में जितने क्षत्री मारे गए उन सबका जनेऊ अकबर ने तौलवाया तो साढ़े चौहत्तर मन हुआ । इसी से चिट्ठियों पर ७४।। लिखते हैं. अर्थात जिसके नाम की चिट्ठी है उस के सिवा और कोई खोले तो चित्तौर तोड़ने का पाप हो । यद्यपि चित्तौर का किला टूटा किंतु वह बहुत दिनों तक बादशाही अधिकार में नहीं रहा । राणा उदय सिंह के पुत्र राणा प्रतापसिंह सदा सर्वदा लड़भिड़ कर बादशाही सेना का नाश किया करते थे । जहाँ बरसात आई और नदी नालों से बाहर आने का मार्ग बंद हुआ कि वह क्षत्रियों को ले कर उतरे और बादशाही फौज को काटा । मानसिंह का तिरस्कार करने से अकबर की आज्ञा से १५७६ में जहाँगीर और महावतखाँ के साथ बड़ी सैना लेकर मानसिंह ने राणा पर चढ़ाई की । प्रतापसिंह ने हल्दीघाट नामक स्थान पर बड़ा भारी युद्ध किया. जिसमें बाईस हजार राजपूत मारे गए । इस पर भी राणा ने हार नहीं मानी और सदा लड़ते रहे । अपने बाप के नाम से उदयपुर का नगर भी बसाया और बहुत सा देश भी जीत लिया। १५७३ में गुजरात, ७६ में बंगाला और विहार, ८६ में काश्मीर, ९२ में सिंध और ९५ में दक्खिन के सब राज्य अकबर ने जीत लिए । अहमद नगर के युद्ध में (१६००) चाँद सुल्ताना नामक वहाँ के बादशह की चाची ने बड़ी शूरता प्रकाश की थी । इसी समय युवराज सलीम बागी हो गया और इलाहाबाद आदि अपने अधिकार में कर लिया । किंतु अकबर जब दक्खिन से लौटा तो जहाँगीर इस के पास हाजिर हुआ । अकबर ने अपराध क्षमा करके बंगाला और बिहार इस को दिया । १७८३ में युसुफजाइयों की लड़ाई में अकबर के प्रिय सभासद महाराज बीरबल मारे जा चुके थे और अबुलफबल को जहाँगीर के विद्रोह के समय उरछा के राजा ने मार डाला था, तथा उस का दूसरा लड़का मुराद भी अति मद्यपान करके मर चुका था । अब (१६०५) में अकबर को उस के तीसरे लड़के दानियाल को भी अति मद्यपान से मर जाने का समाचार पहुंचा । इतने प्रियवर्ग के मर जाने से इसका चित्त ऐसा दुखी हुआ कि बीमार हो कर ६३ वर्ष की अवस्था में आगरे में अकबर ने इस असार संसार को त्याग किया। १. इस का वास्तव में बसन्तराय नाम था । कई तवारीखों में इस की जाति दूसर लिखी है । कितु अगरवालों के भाट इस को अगरवाला कहते है। बादशाह दर्पण ७६३ 51