पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८९८

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उस को काश्यपाचार्य ऐश्वयंपदा कहते हैं अलग होने से ।। २५ ।। अर्थात् सर्वेश्वयंमय ईश्वर को मान कर उस की सेवा करना यही पुरुषार्थ कहते हैं । इनके मत में जीव और ईश्वर का नित्य भेद प्रगट हुा । आत्मैकारा बादरावणः ।। ३०।। बादरायण आचार्य इस को आत्मपर कहते हैं ।। ३० ।। वेदांत सूत्र में व्यास जी का मत है कि आत्मज्ञान हीसे सिदि मिलती है। उभयपरां शांडिल्यः शब्दोपपत्तिभ्या ।। ३१ ।। शांडिल्याचार्य शब्द और उपपत्ति से उभय पर कहते हैं ।। ३१ ।। युक्तियों से और वाक्यों से जीव का ईश्वराश होना सिद्ध है और ईश्वर में सब सामर्थ्य इत्यादि दिज्यगुण उसकी विलक्षणता भी प्रकाश करते हैं, इससे शांडिल्य दोनों मत मानते हैं अर्थात् अपने को ईश्वराश मान करके भी उसकी उपासना करना । वैषभ्यादसिद्धमितिचेन्नाभिज्ञानवदवैशिष्ट्यात् ।। ३२ ।। वेषम्य से असिद्धि होगी ऐसा नहीं है क्योंकि ज्ञान की भाँति अवैशिष्ट्य है ।। १२ ।। अर्थात् जिस रीति "यह यह है" यह भूत और वर्तमान काल की प्रतीति एक ही समय होती है क्योंकि दोनों काल का विषय (यह और वह शब्दों से प्रतिपाद्य) एक ही है वैसे ही ईश्वर में वैषम्य दोष नहीं जा सकता । न च क्लिष्टः परःस्यादनन्तरं विशेषात् ।। ३३ ।। पर (परमात्मा) को कभी इस वैषम्य से क्रोश नहीं होता क्योकि (जान के अनंतर विशेष होता है ।। ३३ ।। अर्थात् जीव और ईश्वर में जो विशेषता है यह ज्ञान से प्रतीत होती है। ऐश्वर्य तथेति चेन्न स्वाभाव्यात् ।। ३४ ।। ऐश्वर्य भी क्लिष्ट नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वाभाविक है ।। ३४ ।। ईश्वर का ऐश्वर्य कुछ उपाधिभूत वा उपाधिजन्य नहीं किन्तु नैसर्गिक है इसी हेतु इसमे भी क्लेश नहीं हो सकता । अप्रतिषिद्ध परेषयं तदभावाच्च नैषमितरेषाम् ।। ३५ ।। (ईश्वर का) परमैश्वर्य कही भी प्रतिषिद्ध नहीं होता, बरंच उसज नैसर्गिकपन प्रगट होता है. इतरों का (जीवों का) ऐसा नहीं ।। ३५ ।। यह शंका न हो कि ईश्वर का जब ऐश्वर्य ऐसा है तो जीवों का भी ऐसा ही खेगा। ईश्वर का यह सर्व स्वाभाविक है और जीवों का का नहीं सान्तेकिमितिचेन्नैवं बुद्ध्यानन्त्यात् ।।३६।। सब के बिना (उसका) क्या प्रयोजन हे ऐसा नहीं क्योंकि बुदि का आनन्त्य है ।। ३६ ।। अर्थात् यदि सब जीष क्रमश: मुक्त होंगे तो ईश्वर का क्या प्रयोजन है तो उसका भी क्यों नही लय मानते ; ऐसा कहोगे तो यह असंभव है क्योंकि बुद्धि का अंत नहीं हो सकता । इस हेतु यह कल्पना मात्र है और ऐसा कालही नहीं कि जिसमें सब जीव एक बार मुक्त हो जॉय और महाप्रलय में जो जीव मुक्त होते है वे वासना सहित होते हैं। प्रकत्यन्तरालादधैकाय चित्सत्वेनानुवर्तमानत्वात् ।। ३७ ।। प्रकृत्यन्तराल से और चित्सत्य के अनुवर्तमान होने से (ईश्वर को) अविकारिता है ।। ३७ ।। यदि ईश्वर में उत्पत्ति कर्तृत्वादि ऐश्वर्य साहजिक है तो यह भी एक प्रकार का विकार हुआ, उसका निवारण करते हैं कि प्रकृति को ईश्वर विकृत करके उत्पत्ति आदि करता है । जैसे मायावी अपनी माया से अन्य वस्तुओं में विकार कर देता है परंतु आप नहीं विकार पाता अर्थात् ईश्वर दुग्ध के कार्य की भांति विकृत नहीं होता वरंच सुवर्ण के विकार की भाँति । और उसमें जीवसत्व जो वर्तमान रहता है वह माया से परे है। तत्प्रतिष्ठा गृहपीठवत् ।। ३८।। उसकी प्रतिष्ठा का व्यवहार घर में पीढ़े पर प्रतिष्ठा भाँति है ।। ३८ ।। अर्थात् प्रकृति के विकार से जगत माया में प्रतिष्ठित है, यह शंका न हो जैसे किसी के घर पीढ़े पर कोई बैठा हो ऐसा कहने में आवेगा कि अमुक पीढ़े पर बैठा है पर वास्तव में वह पीढ़ा और मनुष्य दोनों घर में है ; वैसेहो माया और संसार दोनों ईशवर में है। मियोपेक्षणाभयं ।। ३९ ।। परस्पर की अपेक्षा से दोनों कारण है ।। ३९ ।। अर्थात् संसार की उत्पत्ति में माया और ईश्वर दोनों ही als भारतेन्दु समग्न ८५०