पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०६

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-4402 M-PM त्यातो ७० सेकान भावा गातार्थ प्रत्यभितानात ७१ परा कृत्व सर्वेषां तथा हयाह ७२ भजनीयमद्वितीयमिदम् । कृतमस्य नम्वरूपन्यात ७३ नन्छक्तियिज सामान्यात ७४ व्यापकत्यातव्याप्यानां ५५ नप्राणिदिभ्यो सम्भ- थान ७६ निर्माचाच्चावचं अनानिर्मिमानपितृवत ७७ मिनापदेशान्नेतिचेन्न स्वगत्वात् ७८ फलामस्मान बादरायणो दृष्टत्यात ७९ चक्रमाचबयस्तथा नृष्ट ८० तदेवयं नानात्वमुणधित: ८१ पृथगेय चेन्न परेनासंबंधात ८२ शत्रिकारिणस्तु करविकागन ८३ अनन्यभरल्या नद्बुद्धिायानस्यन्त ८४ ग्रामादिवन विशिष्टतया पुमर्थन्वान ८५ आयुश्निमिन्यारेषा तु हानिरनास्गदत्वान ८६ समृतिरेषामभक्तः स्यान्नाज्ञानात कारणासिद्धः ८५ वीण्येषां नेत्राणि शगिंगाक्षभावन_ ८८ अधिस्तिराभाषा धिकाराः क्रियाफलसवागत क्रियाफमा संयोगात ८५ इस क्रम मूत्र के पाट ग्रन्थसमाग्नि नक है। इति । अथ उपसंहार। हम लोगों के भावशास्त्र में अतिया के पीछे मुख सूत्रों का परा आदर है । ये सून भिन्न २ मृषियों ने भिन्न २ शात्रों के प्रतिपादन को बनाया है और पीछे उन्हीं पर भाष्य व्याख्या टिपनी टीका पना बना कर गोगों ने उन शास्त्रों को भौगया है । यथा जैमिनि ने पूर्णमामासा, व्यास ने उत्तरमीमांसा, गौतम ने न्याय, कणाद ने वैशेषिक, कपिल ने मांच्य और पतर्जाल ने योगसूत्र वनारा है । इन्हीं छः शास्त्रों की संज्ञा पड़ दर्शन है । इन में पूर्व मीमांसा सब प्राचीन बोध होता है । इन सूत्रों को छोड़ कर और भी अनेक सूत्र हैं यथा पाणिनि के व्याकरण के सूत्र, वात्स्यायन के कामसूत्र, वामन और भरत के अनकारशास्त्र पर सूत्र. पिंगण के छन्दःशास्त्र पर और दूसरे दसर ऋषियों' के अन्य अन्य शास्त्रों पर । वैसे भषिलशास्त्र पर शारिष्य ऋषि के और नारद जी के सूत्र है । कहते है कि संकर्षणभूत्र और उसका प्राचीन भाष्य उपासना पर भागे प्रचलित था किन्तु व उस को पुस्तक स्मरण शेष रह गई है। इस शाठिन्य सूत्र के भाष्यकारों ने सूत्रों के प्रारंभ करने के पूर्व उपासना रहस्य नामक अथर्ववन्द की अति का एक प्रकरण गिखा है । उस का आशय यह है कि ब्रहमा ने श्रीशिव जी से भक्ति का भेद पृछा है उस पर धो मे में शिव जी ने दहमा में भक्तिम्यरुष कथन किया है। ब्रहमा जी न वाह रहस्य नारन, वशिष्ठ, गंमत, देवाग और शांडिल्य में कहा है। इस प्रकार आर्य साजोगा का मूल शास्त्र या विट कहलाता है यति कर्म. शान उपासना । पहाण शास्त्र भाषा को कम का उपश करना है. उन कर्मो से शद धिकारी जय को ब्रहमज्ञान कराता है. फिर अब ज्ञान हो लगता है तो उसको उपासना का उपदेश देता हुा परम सिदि को पहुंचाता है। भात कान काग के प्रभाव से उपासना का प्रनार पिरन हो गया है इसी हेतु इस सूत्र का भाषा में अब प्रचार किया गया इस सजगत का परमापास्य सुष्ट हो. इति । भारतेन्दु समग्र ५६२