पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२०

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निवेदन किया कि आज छ महीने से सब मत मतांतर के पंडितों से वहाँ शास्त्रार्थ हो रहा है. सो माया मत वालों को अब तक किसी ने नहीं जीता है । यह सुनकर आपने पंडितों से प्रश्न किया और शास्त्रार्ध प्रारंभ हुआ । चौदह दिन तत्वविचार में, बारहदिन स्थानवदादेश इस सूत्र से प्रारंभ होकर व्याकरण में और एक दिन जैन बौद विचार में, इस तरह सब मिला कर सत्ताइस दिन शास्त्रार्थ हुआ और जितने वादी सभा में उपस्थित थे सब निरुत्तर हुए । तब राजा ने सब पंडितों से जयपत्र लिखवा कर उसपर अपनी मुहर करके इनको दिया और सब पंडितों और मत के आचार्यों ने मिलकर आचार्य पदवी से महाप्रभुजी को पुकारा । राजा कृष्ण देव ने कनकाभिषेक से आप की पूजा किया और सपरिवार शरण आकर सेवक हुआ । इस अभिषेक के सोने को श्रीमहाप्रभु जी ने दीन ब्राहमणों को बाँट दिया और अनेक ब्राहमण के लड़कों के यज्ञोपवीत और लड़कियों के विवाह और अनेक का ऋण-शोधन इससे हुआ । इस सुवर्ण के सिवा एक थाली भर कर मुहर राजा ने आप को मेंट किया था, जिसमें से सात मुहर आपने अंगीकार करके उसका श्री नाथ जी का नूपुर बनाया । फिर राजा को वहाँ के अनेक ब्राहमणों वृहस्पति सब बाजपेय आदि यज्ञ और अनेक महादान कराया और उससे जो द्रव्य एकत्र हुआ उसका तीन भाग किया । एक भाग से श्री विठ्ठलनाथ जी की कटिमेखला बनी. दूसरे भाग से पिता का गुण शोधन किया और तीसरे भाग को करणीय यज्ञ के व्यय निर्वाहार्थ माता को सौंप दिया । और अनेक दिन तक ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, व्रत यज्ञादि इत्यादि धर्म का उपदेश करते आप विद्यानगर में विराजे । कुछ दिन तक विद्यानगर में निवास करने के उपरांत माता से आज्ञा लेकर पृथ्वी-परिक्रमा करने को सं. १५४८ वैशाख वदी २ को आप नगर से बाहर चले । उस समय ब्रहमचर्यव्रत के कारण सीआ हुआ वस्त्र नहीं थे, इससे धोनी उपरना पहनकर दंड कमंडल छत्र और पादुका धारण किए हुए आप चलते थे । इसी ब्रह्मचर्य के दंड धारण पर भ्रम से बहुत मूर्ख आक्षेप करते हैं कि श्री वल्लभाचार्य पहले दंडी थे, फिर गृगस्थ हुए । दामादरदास और कृष्णदास ये दो सेवक आपके साथ थे । पहले भीमरथी के तट पर पण्डरपुर में आए वहाँ सप्ताह परायण करके बैठक स्थापित किया । आगे जिस तीर्थ के वर्णन में पा. वै. स्था. यह संकेत देखो वहाँ समझो कि परायण करके बैठक स्थापन किया) फिर नासिक, त्र्यंबक, पंचवटी, गोदावरी तीर्थ में आए वहाँ वयाह पा. ब.स्था. । वहाँ से उज्जयिनी में आए । वहाँ सिता और अंगपात कुंड (जिसमें भगवान जब सांदीपनी जी के यहाँ पढ़ते थे नब पटिया धोते थे) में स्नान करके महाकालेश्वर का दर्शन करके नगर के बाहर एक पीपल की डाल गाड कर उस पर कमण्डलु का जल आपने छिड़का. जिससे वह ततक्षणात एक वृक्ष हो गया और उसके नीचे सप्ताह पा. वै. स्था. ! यह पीपल का वृक्ष अद्यापि वर्तमान है । वहाँ से पुष्कर जी की यात्रा कर आप वन की ८४ कोस की परिक्रमा करने के हेतु सं. १५४८ के भाद्रपद कृष्णाष्टमी अर्थात् जन्माष्टमी के दिन श्री गोकुल में पधारे । तब श्री नाथ जी को यमुना जल में क्रीडा करते देख आप भी उनके समीप जाने लगे। तब तो वीर बुक्कराय को गोद लिया । वीर बुयराय (१३२४) की सभा में सायण के बड़े भाई माधवाचार्य (विद्यारण्य बड़े पंडित थे और उन्होंने वेदो पर भाष्य किया है और अनेक ग्रंथ बनाए है । वी बुक्कराय की सभा में कई विलागत के लोग आए थे। इनके हरिहरराय (१३६३), उनके देवराज (१३६७) विजयराज (१४१४) और उनके पडर देय (१४२८) । पंडरदेव को श्री रंगराज ने जीत कर अपने पुत्र रामचद्रराय को (१४५०) राजा बनाया । इनके नृसिंहराय (१४७३). फिर धीर नृसिंहराय (१४९०), उनके अच्युतराय और उनके कृष्णदेवराय । राजा कृष्णदेव राय ने सं० १५७० तक (१५२४ ई०) राज्य किया और गुजरात जय किया और मुसलमानों से लड़े । राजा कृष्णदेव के सेनापति नाग नायक ने मथुरा जीत कर राज्य स्थापन किया, जो १६ पीढ़ी तक रहा । इनके रामराज हुए, जो निजामशाह और इमादुलमुल्क की लड़ाई में मारे गए । उनके पीछे श्री रंगराज, त्रिमल्लराज, वीर संघपतिराज, द्वितीय श्री रंगराज. रामदेवराय, व्यंकटपतिराय. द्वितीय व्यंकट मुगलों से हार कर चंद्रदेवगिरि में बसे । इनके पुत्र रामराय, उनको हरिदास (१६९३), नक्रास (१७०४). निम्मदास (१७२१), रामराय (१७३४), गोपालराव व्यंकटपति. त्रिमल्लराय, वीर व्यंकटपति और रामदेवराय क्रम से राजा हुए । इस वंश के अंतिम राजा रामदेवराय, जिनको सं० १९७५ (१८२९ ई०) में टीपू सुलतान ने मारकर राज्य नाश कर दिया । १. विद्यानगर के, कृष्णगढ़ के और नवानगर के राजा लोग इसी काल से इस मत के सेवक होते आते है किंतु विद्यानगर का वंश अब नहीं रहा. उस काल में दक्षिण प्रात के सब राज्य बने हुए थे । विद्यानगर जाने के पूर्व आप हेमाचल गोआ इत्यादि होते हुए चौड़ा गए थे । चौडा के राजा ने एक म्याना और दो प्यादा साथ देकर आचार्य को विद्यानगर पहुंचवाया था । यहाँ पर एक बात और जानने के योग्य है कि श्री महाप्रभु विद्यानगर की सभा में श्री विष्णुस्वामी की गद्दी पर विराजे । इसी समय श्री विल्यमंगल जी ने श्री विष्णुस्वामी के रहस्य और मतभेद सक आप को चेकर तिलक किया था। यह भी जनश्रुति है कि श्री महाप्रभु जीने में मोग-बान से अपना कछतु फेका, जो सूर्य का सा सभा में प्रकाश दिया । तदनन्तर आप सभा में गए । भारतेन्दु समग्र ८७६