पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२३

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का प्रत्युत्तर दें पर वह भी तो परिणाम दुःख स्वरूप ही हैं । "संयोगा विप्रयोगान्ताः" कहा ही है । तो जिसके। परिणाम में दुःख है वह वस्तु किस काम की । फिर उस दुःख में जीवन की कैसी बुरी दशा होगी ? तो ऐसे प्रेम ही से क्या और जीवन ही से क्या ? इसी से न कहा है "जैसे उड़ि जहाज को एच्छी फिर जहाज पर आवै ।" और जाय कहाँ । देखो संसार में वह कितना उदासीन है जिसको तुम्हारे प्रेम का क्लेश भी है । तो नाथ ! जो फिर उस उत्तम जीव को इस संसार के पंक में फंसाओ तो कैसे बनै । हमने माना कि हमारी करनी वैसी नहीं । हाय ! भला यह मुंह से और कौन कह सकता है कि हम इसके योग्य हैं पर अपनी ओर देखो । नाथ ! अब नहीं सही जाती । कृत्रिमप्रमपरायण और स्वार्थपर संसार से जी अब बहुत घबड़ाता है । सब तुम्हारे स्नेह के बाधक हैं साधक कोई नहीं. और जो स्वार्थपर नहीं हैं वे वेचारे भी क्या हैं कि कुछ संतोष देंगे । हाय ! क्या करें । हार करके स्नेह करके जैसे हो वैसे तुम्हारे ही शरण जाते हैं और वहाँ से भी दुरदराए जाये तो फिर क्या करें । अत्त हो गई, नाक में दम आ गई. अब नहीं सही जाती । इस चर्वितचर्वण को कब तक चबाय । सच कहते हैं अब किसी की बात भी नहीं सुहाती । यद्यपि चि. परवश होकर दिन दिन उलटा फंसता जाता है और संसार का और अपने जीवन का मोह बढ़ता ही जाता है पर साथ ही जी भी ऐसा मिचता जाता है जिसका कुछ कहना नहीं । धन के विषय में भी वैसा ही कीजिए । सारे संसार को दिखाइए कि हमारे यो इंका देकर इस संसाररूपी शत्रु- दुर्ग से निकलते हैं और मेरा भी मान रख लीजिए । हे नित्यनूतन घन नित्य नव प्रेम बरसाइए । हाय ! आज हमने आप को कितना कष्ट दिया और कितना बके । जमा भी तो कितने दिन से हो रहा था । और फिर बकें तो किस के आगे ! बकने ही से तो कुछ संतोष होता है जाने दीजिए । देखिए यह आप के लोगों का सर्वस्व है इसे अंगीकार कीजिए । भला कहाँ परम पवित्र अमृतमय प्रेममार्ग, कहाँ हमारी पामर बुद्धि । पर क्या हुआ । ऐसी उत्तम बातें जा मुंह से निकली हैं यह हमारी करतूत नहीं है, तुमने कही है । शिवा वा नारद कौन हैं ? आपही । यद्यपि जब बुझ जाय तब काठ का काठ है पर जब तक अग्नि के संग से दहकता रहे काठ भी आग ही कहलाता है । शराबी की कोई जाति नहीं होती है । थोड़ी शराब पिये तो शराबी, बहुत पिये तो शराबी । इसी नाते इतना बके है । इसे सुन कर प्रसन्न होना, सुधारना, इसका प्रचार करना यह सब तुम्हारा और तुम्हारे जनों का काम है. हमारी तो कर्तव्यता इतनी ही थी कि निवेदन कर दिया । चैत्रशुद्ध ५ आपका हरिश्चंद्र श्री तदीयसवस्व नारदीय भक्तिसूत्र का बृहत् भाष्य दोहा भरित नेह नव नीर नित बरसत सुरस अथोर । जयति अपूरब घन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।। करि करुना लखि जग बिमुख कियो प्रेमपथ चारु । जय बल्लभ ब्रजगोपिका प्रीति कृष्ण अवतारु ।। जिहि लहि फिर कछु लहनकी आस न चित में होय । जयति जगत पावन करन कृष्ण बरन यह दोय ।। तदीय सर्वस्व ८७९