पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२५

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आत्माराग अर्थात् ईश्वर ही में सदा रमण करता है। पहिला अनुवाक समाप्त हुआ ७ ॐ सा न काभयमाना निरोधरूपात्। वह भक्ति कामना के अर्थ नहीं होती, क्योंकि वह निरोधरूपा है ।। ७ ।। जो कामना के लिए की जाती है वह भक्ति नहीं वह लोकव्यापार है । जब श्री नृसिह जी ने प्रहलाद जी को वर माँगने के हेतु कहा तब उन्होंने भी यह उत्तर दिया कि 'हमने आपसे व्यापार नहीं किया, भक्ति किया । जो सेवक होकर सेवा के बदले सेव्य से कुछ चाहे वह सेवक नहीं किन्तु व्यापारकारी बनिया है, और यदि आप वर देना चाहें तो यही दीजिए कि हमारे मन में किसी वर वा राज्यभोगादि वांछा की उत्पत्तिही न हो । भगवान ने श्रीमुख से भी यही आज्ञा की है "नमय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते । भर्जिता क्यथित धाना भूयो बीजाय नेष्यते" ।। जिन लोगों का चित्त मुझ में शुद्ध रीति से प्रतिष्ठित है उनके काम कामना के अर्थ नहीं होते, क्योंकि भूने और कूटे धान फिर नहीं उगत । इस सूत्र से विषयजन्य प्रेम का भी निवारण किया. इससे लोग संसार के विषयियों के इंद्रियजन्य सुख वा और किसी इच्छा से की हुई प्रीति को हम किसी पर प्रेम करते हैं यह कह कर इस प्रेमशब्द को लज्जित न करें, क्योंकि प्रेम तो सर्वदा कामनाशून्य है ।। कामना ही की निवृत्ति के अर्थ कहते हैं कि वह भक्ति निरोधस्वरूपा है, तो जब चित्त निरुद्ध होगा तो उसमें कोई कामना आप ही न होगी। भक्तिमार्गीय परमाचार्य श्रीश्रीबल्लभाचार्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ निरोधलक्षण में लिखा है, 'अहंनिरुद्धो रोधेन निरोधपदवीं गतः । निरुदानां तु रोधाय निरोध वर्णयामि ते ।। हरिणा ये विनिर्मुक्तास्ते मग्ना भवसागरे । ये निरुदास्तएवात्र मोदमायांत्यहर्निशं' ।। आप आज्ञा करते हैं - मैं रोध में निरुद्ध हूँ और निरोध की पदवी को प्राप्त हो चुका हूँ तथापि निरोधाधिकारियों के निरोध के अर्थ निरोध का वर्णन करता हूँ। फिर आप आज्ञा करते हैं कि जिन को भगवान ने छोड़ दिया है वे संसारसागर में इबे हुए हैं और जिनको उसने निसद्ध किया है वही अहर्निश परमानंद प्राप्त करते हैं । इस वाक्य से यह दिखाया कि निरुद्ध होना स्वसाध्य नहीं है, जिनको वह (ईश्वर) चाहता है, निरुद्र करता है, नहीं तो उसे छोड़ देता है । मनुष्य का बल केवल उस मार्ग पर प्रवृत्त होना है. परंतु इससे निराश न होना चाहिए कि जब अंगीकार करना वा न करना उसी के आधीन है तो हम क्यों प्रयत्न करें । हमारे क्लेश करने पर भी वह अंगीकार करे वा न करे ऐसी शंका कदापि न करना । क्योंकि आचार्य कहते हैं कि "क्लिश्यमानान्जनान्दृष्टा कृपायुक्तो यद भवेत् । तदा सर्व सदानन्दं हृदिस्थं निगतं बहिः ।। सर्वानन्दमयस्यापि कृपानन्दः सुदुर्लभः । हृदगतः स्वगुणानश्रुत्वा पूर्णः प्लावयते जनान ।। तस्मात्सर्व परित्यज्य निरुदैः सर्वदा गुणाः । सदानन्दपरैर्गयाः सच्चिदानन्दता स्वतः । "जनों को क्लेशित देख कर के जब वह कृपायुक्त होता है तब सर्व सदानंद रूप बाहर और अंत: प्रगट कर देता है । सर्वानंदमय को भी उसके कृपा का आनंद दुर्लभ है परंतु हृदय में बैठा हुआ जब अपने गुणों को सुनता है तो अपने कृपानंद से लोगों को भिजो देता है । इस हेतु और सब बखेड़ा छोड़ कर सदानंद पर निरुद्ध लोगों को उसका गुण सदा गाना चाहिए । उससे सच्चिदानंद का आप से आप प्रागट्य होता है । अर्थात् नियम है कि जो सब परित्याग करके उसका मजन करेंगे उसको यह निरुद्ध करके परमानंद दान करेहीगा । यही उस की प्रतिज्ञा भी है "कौंतेय प्रतिजानीहि न में भक्तः प्रणश्यति । तेषामह समुदर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।। इस से उसके वाक्य पर विश्वास रख कर निरुद्ध होना चाहिए । निरोध छः प्रकार का है अर्थात छः प्रकार की भावना ईश्वर में करने से मनुष्य निरुद्ध होता है ; यथा प्रथम 'भीतिभाव निरोध' अर्थात् संसार के दुःखों से भयभीत होकर ईश्वर में अवलंब करना, दूसरा "स्वामिभावनिरोध" अर्थात् ईश्वर को संसार का स्वामी मान कर दासभाव से निरुद्ध होना, तीसरा "सर्वभावनिरोध' अर्थात् ईश्वर को वासुदेव:सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः' इस वाक्य के अनुसार छोटे बड़े चेतन सब को इंश्वर मान कर नमस्कार करना और सब स्थान पर उसी को देखना वा स्वामी माता पिता मित्र सब भाव से ईश्वर ही का भजन, चौथा "सख्यभाव निरोध" अर्थात् ईश्वर ही को सखा मान कर निरुद्ध होना, पाँचवाँ "वात्सल्यभावनिरोध" अर्थात् श्री नन्दयशोदादिक ब्रज के बड़े गोपियों के वा इनके सदृश और किसी के SA तदीय सर्वस्व ८८१