पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३९

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स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र नहीं सुनना । स्त्रियों के चरित्र सुनने से विषयों में वासना होती है, धन का चरित्र सुनने से लोभ की वृद्धि होती है, नास्तिकों का चरित्र सुनने से विश्वास में हानि होती है तथा वैरियों का चरित्र सुनने से उन पर क्रोध की वृद्धि होती है तो ये सब तमोगुणादिक के कारण है इस से इनको सुनना ही नहीं। ६४ ॐ अभिमानदंभादिकं त्याज्यम् । अभिमान, दम्भ आदि को छोड़ना । भक्तिमार्ग के मुख्य विरोधी ये ही दो हैं, क्योंकि भक्ति सिद्ध हो जाने पर भी इनके फिर उदय होने का भय रहता है, हम बड़े भक्त है, हम लोगों के उपदेष्टा हैं इत्यादिक अभिमान और वाहयाचरण में व पूजा के आडंबर में भेद न पड़े यह दंभ और आदि शब्द से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर इत्यदि लिये जाते हैं । जो कहो कि दुस्त्यज हैं तो कहते हैं ६५ ॐ तदर्पिताखिलाचारस्सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् । सब आचार उसी (भगवान) को अर्पण कर उस क्रोध अभिमान आदि सब उसी पर करना । अर्थात काम करना तो यही कि वह परमश्रेष्ठ हमें मिले, क्रोध करना तो उसी पर कि क्यों नहीं मिलता ? अभिमान भी उसी का कि हमारा स्वामी सर्वेश्वर है हमारा प्यारा सब से सुंदर है इत्यादि । ६६ ॐ त्रिरूपभंगपूर्वक नित्यदासनित्यकान्ता भजनात्मक वा प्रम एव काय्यं प्रम एवं कार्यमिति । तीनों रूपभंग पूर्वक (भगवान का) नित्य दास्य और नित्यकान्ता की भाँति भजन रूपी प्रेम ही करना, प्रेम ही करना । त्रिरूप शब्द का क्या अभिप्राय है यह कौन जाने । यदि हम स्मात होते तो ब्रहमा विष्णु शिव को एक करते वा वेदान्ती होते तो त्रिपुटीभंग वा जीव, ईश्वर और ब्रहम की एकता करते परंतु यह भक्तिशास्त्र है यहाँ इनका प्रयोजन नहीं । यहाँ तीनों गुणों को मिटा कर वा भक्तिस्वरूप आनंदांश के आविर्भाव से तीनों (सत्, चित् और आनंद) का परस्पर पृथक्त्व भंग करना वा गुरु ईश्वर और उसके भक्तों के भेद का भंग इत्यादि । अब हम अपना सिद्धांत दिखाते हैं । युगल स्वरूप में और उनको पृथक् मानना अर्थात् यह वह और यह दोनों अलग हैं यह जो तीन प्रकार की भावना है इसका भंग वा प्रमी, प्रेम और प्रभपात्र इनके भेद के भंग पूर्वक दासभाव से वा कांताभाव से प्रेम ही करना, प्रेम ही करना । इति शब्द से इन साधनों के कहने के पीछे और कुछ शेष वक्तव्य नहीं यह बोधन किया । अष्टम अनुवाक समाप्त । ६७ ॐ भक्ता एकान्तिनो मुख्याः । भक्त एकांती (अभ्यंतरचारी) (और सब से) मुख्य होते हैं। पहिले सूत्रों में साधारण भक्तों की महिमा दिखाकर अब एकांती भक्तों की महिमा दिखाते हैं । भक्तों में भी अनन्य और एकांती (अपनी भक्ति को गूढ रखने वाले) मुख्य हैं । इस एकांती शब्द से भक्ति भी सब संसार के दिखावे की भांति एक संसारी आचरण है, इस का निषेध किया । ६८ ॐ कण्ठावरोधरोमांचाक्षुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च । (ज भक्त लोग) कंठ का अवरोध, रोमांच और अन्नु आदि से युक्त होकर परस्पर भाषण करते हुए कुल और पृथिवी को पवित्र करते हैं। स्मरन्तः स्मारयन्तश्च मिथोघौघहरं हरि । भक्त्या संजातया भक्ता विभ्रत्युत्पुलका तनुं ।। क्कचिगुदत्यच्युतचिन्तया क्कचित् हसन्ति नन्दन्ति वदत्यलौकिकाः । नृत्यन्ति गायत्यनुशीलयन्त्यजं भवन्ति तूष्णीम्परमेत्य निर्वृताः ।। इत्यादि प्रबुद्ध का वाक्य है ।। परम भागवत प्रल्हाद जी ने कहा है "निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान्वार्याणि लीलातनुभिः कृतानि । यदातिहर्षोत्पुलकाश्रु गद्गद प्रात्कण्ठ उद्गायति रौति नृत्यति ।। यदा ग्रहग्रहस्त इव क्कचिदसित्याक्रदन्ते ध्यायति वन्दते जन । मुहुः श्वसन वक्ति हरे जगत्पते नारायणेत्यात्मगतिर्गतत्रपः ।।" श्रीमुखवाक्य भी है "एवं हरौभगवति प्रति लब्धभावो भक्त्या द्रवदृदय उत्पुलक: प्रमोदात् । औत्कण्ठ्यवाष्पकलया मुहुरद्य- तदीय सर्वस्व ८९५