पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४३

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७४ ॐ वादो नावलम्बध्यः । श्रीमुख से निषेध किया है "वादवादांस्त्यजेत्तान पक्षं कञ्चन नाश्रयेत् । वेदवादरतो न स्यान्नपाखण्डी न हेतुकः ।। इत्यादि क्योंकि वाद से मनुष्य के चित्त में आग्रह की गाँठ पड़ जाती है और जहाँ आग्रह होता है वहाँ तत्व नहीं प्रगट होता और बहुत वाद करने से तमोगुण उदय होने की भी संभावना है । अब उसमें हेतु देते ७५ ॐ बाहुल्यावकाशवत्त्वादनियतत्वात् । (क्योंकि बाद में) बहुत अवकाश है और अनियत है। व्यास जी ने कहा है "तर्काप्रतिष्ठानात्" तथा श्रुति भी है "नैषामतिरापनेया दुषप्रतक्यः" । क्योंकि जितने वाद हैं वे भगवान का तत्व जानने के हेतु हैं सो वादों से कभी नहीं जाना जायगा, क्योंकि वहाँ तक बुद्धि जाती नहीं "यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह" "यद्वाचा नाभ्युदित" । सनत्सुजात में भी "न तं विदुर्वेदविदो न वेदा:'. "नेदं यदिदमुपासते", "वेदान्तकृद्धेदविदेव चाह". "शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयं । अनन्तपारगम्भीरं दुर्विगाहयंसमुद्रवत्". "नैतन्मनो विशति वागपि चक्षुरात्मा प्राणेन्द्रियाणि च ।" इत्यादि से ईश्वर की वादों से दरता स्पष्ट है और वेद भी उसके विषय में नेति नेति कहते हैं तब व्यर्थ वाद क्यों करना क्योंकि उस की प्रतिज्ञा है भक्त्याहमेकया ग्राहयः" । इससे वादों को छोड़ कर केवल उस पर विश्वास करना । ७६ ॐ भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्मण्यपि करणीयानि । भक्ति शास्त्रों को मनन करना और उस (भक्ति) को बधने वाले कमों को करना । बाद छोड़कर केवल सिद्धान्त स्वरूप भक्तिशास्त्रों को देखना और उनका चिन्तन करना आचार्यों और भगवज्जनों और सिद्धान्तों के रहस्य को जानना और भक्ति बढ़ाने वाले उत्सव, सत्संग, तीर्थाटन, कथाप्रवण, तदीयों से आलाप, भगवत्सेवा और गुरु-शुश्रूषा इत्यादि कर्म करना इससे भक्ति प्रतिक्षण वर्द्धमान रहेगी । ७७ ॐ सुखद:खेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणाईमापि व्यर्थ न नेयं । सुख, दुःख, इच्छा, लाभादि (का अभिमान) छोड़ कर काल की प्रतीक्षा करते हुए भी आधा क्षण भी व्यर्थ न बिताना । यद्यपि इच्छादि के परित्याग से पूर्ण काम हो गए हैं और कुछ कर्तव्य है नहीं तथापि भगवद्जन बिना क्षण भर भी नहीं बिताना क्योंकि यह तो नित्य कार्य है । देखो मरने के समय करोड़ उपाय करो क्षण भर भी विशेष मनुष्य नहीं रह सकता ऐसे अनमोल क्षण को व्यर्थ बिताना मूर्खता की बात है। ७८ ॐ अहिंसासस्यशौचदया स्तिक्यतादिचारित्र्याणि पालनीयानि ।। अहिंसा, सचाई, शुद्धि, दया, आस्तिकता आदि सब चारित्र्यों का पालन करना । क्योंकि सत्व गुण के ये सब कृत्य हैं । इनके न करने से वा विरुद्ध करने से तमोगुण की प्रवृत्ति होती है और भक्ति में बाधा होती है । ७९ ॐ सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तैभगवानेन भजनीयः । सर्वदा सब प्रकार से निश्चित होकर भगवान ही का भजन करना । साधारण शिक्षा देकर सिद्धांत की शिक्षा देते हैं कि सर्वदा सब काल में दुःख में सुख में अनेक कर्मों में प्रवृत्त रहने के समय भी सर्व भाव से अर्थात् उसको अपना सर्वस्व मान कर केवल उसी का भजन करना और भजन भी निश्चिंत होकर करना, क्योंकि जो किसी प्रकार खटका रहता है तब भजन भली भाँति नहीं होता । ८० ॐ स कीर्त्यमानश्शीघ्रमेवाविर्भवस्यनुभावयति भक्तान् । वह गाए जाने से शीघ्र ही प्रगट होता है और अपने भक्तों को अनुभव कराता है । सो तो उसकी प्रतिज्ञा ही है "नाहं वसामि वैकुण्ठै योगिनां हृदये न च । मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।" और नारद जी ने भी कहा है "प्रगायत्स्ववीर्यापि तीर्थपादः प्रियनवाः । आहूत इव मे शीघ्र दर्शनं याति चेतसि ।।" श्रीमहाप्रभु जी ने भी कहा है "क्लिश्यमानान्जनान्दृष्ट्वा कृपायुक्तोवदाभवेत् । तदा सर्व भी ताप देना वा उद्वेजन करना (६२) तर्कवितर्क से आस्तिकता से मान डिगाना (६३) भगवदवतार में जन्म कर्म मानना (६४) जुगल स्वरूप में भेदबुति । PARA तदीय सर्वस्व ८९९