पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/१२

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वग को प्रभावित करती है। सदा ही किसी न किसी प्रकार के अभावो की चुनौतियो से घिरा रहने वाला कवि-कलाकार इन्ही मनोबिंबो के सहारे आगे बढने का हौसला पाता है। वह अभावो को अपने अनुभूत भावो से भरता है। वह जब जड स्थिति की कुरूपता को स्वस्थ प्रगति की सुन्दरता प्रदान करता है, उसके आगे उक्तियो और उपमानो आदि की सुन्दरता बडी होते हुए भी छोटी बन जाती है । सुन्दर प्राभूषणो की सुन्दरता कुरूप काया पर कभी नहीं खिलती, उसकी शोभा का निखार भी सुन्दर मुखडे वाली सुडौल काया पर ही आ सकता है । भारतेन्दु अपने समाज को सुन्दर और स्वस्थ बनाने के लिए उतावले थे। भक्त की निशानी यही है कि वह 'सियाराम मय सब जग जान' कर तन-मन-धन से उसकी सेवा करे । इस दृष्टि से भारतेन्दु खरे वैष्णव भक्त थे । साहित्यसाधना ही उनकी भक्ति-साधना थी । स्कूल खोलना, रगमच आन्दोलन को सक्रिय बढावा देना, धमसमाज, तदीयसमाज आदि सस्थाओ की स्थापना करना आदि सारे काम उनकी साहित्यसाधना या 'हरिपद मति रहै' के लिए ही समर्पित थे। यही कारण था कि कुल १६-१७ वर्षों का कायकाल पाकर भी वे युग-प्रवत्तन करने के सवथा योग्य सिद्ध हुए । बाबू राधाकृष्णदास जी ने उनकी लेखन शक्ति के विषय मे लिखा है कि डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र इन्हे 'लिखने की मशीन' कहा करते थे । लेखन शक्ति इतनी आश्चर्यजनक थी, कलम कभी न रुकती । बातें होती जाती हैं, कलम चला जाता है। कलम, दावात और कागजो का बस्ता सदा उनके साथ चलता। दिन भर लिखने पर भी सन्तोष न था, रात को भी उठ कर लिखा करते । यह तडप और उतावलापन क्सिी दीवाने मे ही हो सकता है और दीवाने ही युगप्रवतक होते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि सम्प्ण हिन्दी भाषी क्षेत्र के प्रबुद्ध जनो को भाषा, संस्कृति और समाज सेवा के कार्यो में लगा कर उन्हें एक मिशनरी प्रेम के कच्चे धागे मे बाध कर,