(४२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र जरासन्धबध महाकाव्य से--चले राम अभिराम राम इष धनु टॅकारत । दीनबन्धु हरिबन्धु सिन्धु सम बल बिस्तारत ॥ जाके दशसत सिरन मध्य इक सिर पर धरनी। लसति जथा गज सीस स्वल्प सरसप सित बरनी ॥ विक्रम अनत प्रतक अधिक सुजस अनत अनत मति । परताप अनत अनत गुन लसे अनत अनत गति ॥१॥ पद-प्रभु तुम सकल गुन के खानि । हो पतित तुव सरन पायो पतित पावन जानि ॥ कब कृपा करिहौ कृपानिधि पतितता पहिचानि । दास गिरिधर करत बिनती नाम निश्चै प्रानि ॥१॥ खडी बोली का पद--जाग गया तब सोना क्या रे। जो नर तन देवन को दुलभ सो पाया अब रोना क्या रे ॥ ठाकुर से कर नेह अपाना इन्द्रिन के सुख होना क्या रे । जब बैराग ज्ञान उर पाया तब चॉदी औ सोना क्या रे ॥ दारा सुपन सदन मे पड के भार सबो का ढोना क्या रे। हीरा हाथ अमोलक पाया काँच भाव मे खोना क्या रे॥ दाता जो मुख मॉगा देवे तब कौडी भर दोना क्या रे। गिरिधरदास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे॥१॥ ___विदुर नीति से--पावक, बरी, रोग, रिन सेसहु राखिय नाहिं । ए थोडे हू बढहिं पुनि महाजतन सो जाहि ॥१॥ ____ बाल्मीकिरामायण से-पति देवत कहि नारि कहें और आसरो नाहि । सर्ग सिढी जानहु यही वेद पुरान कहाहि ॥१॥ नीति के छप्पय (स्वहस्त लिखित एक पुर्जे से)-धिक नरेस बिनु देस देस धिक जहँ न धरम रुचि । रुचि धिक सत्य विहीन सत्य धिक बिनु बिचार सुचि ॥ धिक बिचार बिनु समय समय धिक बिना भजन के । भजनहु धिक बिनु लगन लगन धिक लालच मन के ॥ मन धिक सुन्दर बुद्धि बिनु बुद्धि सुधिक बिनु ज्ञान गति । धिक ज्ञान भगति बिनु भगति धिक नहिं गिरिधर पर प्रेम प्रति ॥१॥ मुझे खेद है कि न तो मैने इनके सब ग्रन्थो को पढ़ा है और न इतना अवसर मिला कि उत्तमोत्तम कविता छाँटता। यतकिञ्चित उदाहरण के लिये उद्धृत कर दिया और चित्रकाव्य को छापने की कठिनता से सवथा ही छोड दिया है । धर्म विश्वास--वैष्णव धर्म पर इन्हें ऐसा अटल विश्वास था कि और सब देव देवियों की पूजा अपने यहाँ से उठा दी थी। भारते दु जी ने लिखा है कि "मेटि देव