पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/९५

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (७७) और साँचे मे ढले से होते थे। नागरी और अंगरेजी के अक्षर बहुत सुन्दर बनते थे। इसके अतिरिक्त महाजनी, फारसी, गुजराती, बॅगला और अपने बनाए नवीन अक्षर लिख सकते थे। कलम दावात और कागजो का बस्ता सदा उनके साथ चलता था। दिन भर लिखने पर भी सतोष न था, रात को उठ उठकर लिखा करते। कई बार ऐसा हुआ कि रात को नींद खुली और कुछ कविता लिखनी हुई, कलम दावात नहीं मिली तो कोयले या ठीकरे से दीवार पर लिख दिया, सवेरे हमलोग उसकी नकल कर लाए। कितनी ही कविता स्वप्न मे बनाते थे, जिनमे से कभी कभी कुछ याद आने से लिख भी लेते थे। 'प्रेमतरङ्ग' मे एक लावनी ऐसी छपी है। इस लावनी को विचारपूर्वक देखिए तो सपने को कविता और जागने पर पूर्ति जो की है वह स्पष्ट विदित होती है। कागज कलम दावात का कुछ विशेष विचार न था, समय पर जैसी ही सामग्री मिल जाय वही सही। टूटे कलम से तथा कुछ न प्राप्त होने पर तिनके तक से लिखा करते थे, परन्तु अक्षर की सुघरता नहीं बिगडती थी। आशु कविता कविताशक्ति इनकी विलक्षण थी। कई बेर घडी लेकर परीक्षा की गई कि चार मिनिट के भीतर ही समस्या पूर्ति कर लेते थे। बड़े बड़े समाजो और बडे बडे दर्बारो मे इस प्रकार समस्यापूर्ति करना सहज न था। इतने पर प्राधिक्य यह कि किसी से दबते न थे, जो जी मे प्राता था उसे प्रकाश कर देते थे। उदयपुर महाराणा जी के दर्बार मे बैठकर निम्न लिखित समस्यापूर्ति का करना कुछ सहज काम न था- राधाश्याम सेवै सदा वृन्दावन बास करै, रहे निहचिन्त पद आस गुरुवर के । चाहै धनधाम ना पाराम सो है काम हरिचन्दजू, ___ भरोसे रहै नन्दराय घर के॥ एरे नीच धनी । हमे तेज तू दिखावे कहा, गज परवाही नाहिं होय कबौं खरके ।