पूर्वज-गण ज्योतिर्विहीन हो गए थे और अनेक उपचार होने पर अन्त में कलकत्ते के एक नामी डाक्टर द्वारा आँख बनवाई गई थी। उस साल के बुढ़वा मंगल में महाराज शरीक न हो सके, इस पर भारतेन्दु ने काशिराज का बड़ा चित्र अपने कच्छे पर लगा कर सब काशीवासियों को दर्शन करा के नेत्र तृप्त करा दिया। नेत्रों के ठीक हो जाने पर सन् १८८४ ई० में इन्होंने कारमाईकेल में बड़े समारोह से आनन्दोत्सव मनाया था । कुछ कुचालियों के प्रयत्न करने पर भी यह कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया था। लखनऊ के अन्तिम नबाब वाजिद अलोशाह जब राज्य से हटाए जाकर कलकत्ते भेजे गए थे, उस समय उनके साथ उर्दू के दस-बारह कवि भी गए थे । नवाब साहब मटियाबुज में रहने लगे और उनको छाया में ये कवि गण भी कालयापन करते थे। इन्हीं कवियों में से किसी मिर्जा आबिद ने बाईस शेर का एक कसीदा इनकी प्रशंसा में लिख कर भेजा और इनसे कुछ आर्थिक सहायता चाहो थी। वह कसीदा नीचे उद्धृत कर दिया जाता है- 9 बागे आलम में मोतदिल है हवा । नखले-उम्मीद है हरा सब का॥ कुछ ज़माने का रंग फिर बदला। फिर नया तौर कुछ नज़र आया । किसकी या रब नसीमे-फैज़ चली । खिल रहे हैं जो यह गुले राना॥ था इसी फिन में कि आई निदा। जानता तू नहीं है उसको क्या ।। साधारण, न अधिक गर्म न अधिक ठंढा। आशा का वृक्ष । उदया की धीमी हवा। रंग बिरंग के फूल । “शब्द, आवाज़ ।
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