१०० वाला भारतेंदु हरिश्चन्द्र छोटी नोट बुक छपवा कर उन्हें मित्रों में वितरित करते थे, जिन पर 'हरिश्चन्द्र को न भूलिए' आदि से प्रेम वाक्य छपे रहते थे। काशी के एक कमिश्नर मिस्टर कार्माइकेल ने ऐसे ही एक नोट बुक की प्रशंसा भी की थी। "हमने अपने पत्रों को लिखने के हेतु सात वारों के भिन्न- भिन्न रङ्ग के काग़ज़ और उनके ऊपर के दोहे आदि बनाए थे। इनमें लाघव यह है कि बिना वार का नाम लिखे ही जान जायगा कि अमुक वार को पत्र लिखा है। जैसा शनैश्चर के ऊपर लिखा हुआ था 'श्री श्यामा श्यामाभ्यां नमः।' उसके नीचे यह दोहा लिखा था- और काज सनि लिखनि में होइ न लेखनि मंद । मिले पत्र उत्तर अवसि यह बिनवत हरिचन्द ॥ इसमें मंद और शनि का शब्द निकला। आदित्यवार से शनिवार तक कागजों के ऊपर के नाम और स्याही का यह क्रम समझना चाहिए। यथा आदित्यवार-भक्त कमल दिवाकरा- यनमः' 'सूर्य वंश विकाशाय श्री रामायनमः', काग़ज़ का रंग गुलाबी । स्याही का रंग लाल । मित्र पत्र बिनु हिय लहत छिनहूँ नहिं विश्राम । प्रफुलित होत न कमल जिमि बिनु रबि उदय ललाम ।। सोमवार, 'श्री कृष्णचन्द्रायनमः' 'लक्ष्मी-मुख-चन्द्र-चकोरा- यनमः' 'श्री रामचन्द्रायनमः' 'चन्द्रशेखरायनमः' 'चन्द्रचूड़ायनमः' । काग़ज़ का रंग सफेद, स्याही का रंग रूपहली। बंधुन के पत्रहि कहत, अर्थ मिलन सब कोय। आपहु उत्तर देहु तो, पूरो मिलनो होय ॥ उदाहरणार्थ इनके रचित पत्रबोध से केवल इतना ही उद्- धृत कर दिया गया है। इनका मुख्य सिद्धान्त वाक्य 'यतो धर्म-
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