१०२ भारतेंदु हरिश्चन्द्र नागरी तथा अंग्रेजी के अक्षर बहुत ही सुन्दर बनते थे और महाजनी. फारसी, गुजराती और बंगला भी अच्छी तरह लिखते थे। हिन्दी तो वह इतनी शीघ्रता से लिखते थे कि उर्दू तथा अंग्रेज़ी लिखने वालों को बाजी लगाकर जीता था। उस पर अक्षर सुडौल ही रहते थे। आश्चर्य यह भी था कि बात चीत करते जाते थे और लेखनी चलती जाती थी। इसी सब को देख. कर डाक्टर राजा राजेन्द्र लाल मित्र ने इन्हे 'राइटिंग मशीन' की पदवी दी थी। यों तो लिखने-पढ़ने का सामान सर्वदा इनके पास रहता था और जब यह घूमने फिरने जाते थे तब भी यह सामान इनके साथ रहता था। यहाँ तक कि थियेटर हॉल तथा मजलिसों में भी यह सामान मौजूद रहता था । यदि किसी कारण वश कलम दावात न मिल सकी तो कोयले या ठीकरे से दीवार ही पर लिख डालते थे। लेखनी न हुई तो तिनके ही से उसका काम लेते थे। इस बेसामानी के होने पर भी अक्षर बिगड़ते नहीं थे। इनकी लेखन शक्ति के समान ही इनकी आशुकवित्व शक्ति भी बड़ी विलक्षण थी। चार चार मिनट के भीतर समस्यापूत्ति कर डालते थे । महाराणा उदयपुर के राजदरवार में समस्या- पूर्ति करने का उल्लेख हो चुका है और उनमें भी एक पद में कितनी दबंगता तथा अपने इष्टदेव पर विश्वास भरा था उसका अंतिम चरण यों है- होइ ले रसाल तू भलेई जग जीव काज, अासी ना तिहारे ये निवासी कल्पतरु के । काशीनरेश के दरबार में एक बार ऐसा हुआ कि किसी सज्जन ने एक समस्या दी थी जिसकी कोई पूर्ति नहीं कर मका था। उसी समय भारतेन्दु जी वहाँ आ गए तो महाराज ने इनसे
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